जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
यह सब जानकर ऐसी कल्पना करना मेरे लिए स्वाभाविक था कि इस सारे अनुशीलन, चिन्तन, मन्थन का प्रभाव किसी-न-किसी रूप में ईट्स के जीवन और सृजन पर निश्चय पड़ा होगा। इसी का विश्लेषण करना मेरे शोध का उद्देश्य हो सकता था। पर इस दर्जे पर तो केवल मेरे शोध का विषय अधिक विस्तृत होकर मेरे सामने स्पष्ट हो रहा था। एक दिन मौका पाकर मैंने मि० हेन से कहा कि अगर मैं अपने शोध का विषय W. B. Yeats and the Irrational (डब्ल्यू ० बी० ईट्स और अतार्किकता) रखू तो कैसा रहेगा? उन्होंने कुछ देर सोचकर कहा कि 'तुम्हारे पहले विषय की अपेक्षा, ज़ाहिर है, यह अधिक व्यापक है, पर शोध-प्रबन्ध के लिए इसकी भी कुछ सीमाएँ निर्धारित करनी होंगी, गो इस पर अभी से सिर खपाने की आवश्यकता नहीं। तुम्हारे शोध का पहला चरण समाप्त हआ-ठीक विषय मिल गया। दूसरे चरण में दो तरह का अध्ययन समानान्तर करना है। ईट्स के आलोचना-साहित्य को अब नहीं छूना है। अब एक ओर तो उनके मौलिक साहित्य का पारायण करना है और दूसरी ओर उस अताकिक सामग्री का अध्ययन, जिसका अवगाहन-अवलोकन ईट्स ने स्वयं किया था। और अपनी स्मृति और कल्पना को इस भांति सजग रखना है कि एक को दसरे से जोडने अथवा प्रभावित करने वाली कड़ियाँ चूकने न पायें।' उन्होंने मुझे आगाह किया कि 'ईट्स का मौलिक साहित्य तो बार-बार पढ़ा जा सकता है, पर जिस अतार्किक को उन्होंने पढ़ा-धोखा था, जिसमें वे भीगे-डूबे थे, उसे दुबारा पढ़ना तुम्हारे लिए सम्भव न होगा-तुम उस सामग्री को प्रायः शुष्क, उबाऊ, दुरूह और अस्पष्ट पाओगे, फिर तुम्हारे पास इतना समय भी कहाँ है! इस काम के लिए छह महीने का समय मेरी समझ में बहुत कम है, पर इतने समय में यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अतार्किक के किन पक्षों का ईट्स के साहित्य पर विशेष प्रभाव पड़ा था और उन्हीं तक अपने को सीमित रखने और उन्हीं पर विशेष बल देने से विषय-प्रतिपादन में सुविधा होगी, उलझाव न आने पायेगा और कसाव भी बना रहेगा; आखिर शोध-प्रबन्ध की शब्द-सीमा तो हर विश्वविद्यालय में तय रहती है. केम्ब्रिज में एम० लिट० के प्रबन्ध की शब्द-सीमा 40,000 और पी-एच० डी० के प्रबन्ध की 60,000 है। विषय असाधारण अथवा विशिष्ट होने पर एक-चौथाई शब्द अधिक प्रयुक्त करने की अनुमति मिल जाती है। बी० राजन ने, जो केम्ब्रिज से अंग्रेजी साहित्य में डाक्टरेट लेने वाले पहले भारतीय थे, अपने शोध-प्रबन्ध में केवल 30,000 शब्दों का उपयोग किया था। हमारे यहाँ मात्रा से अधिक गुण को महत्त्व दिया जाता है।'
मि० हेन के आदेशानुसार मैंने लगकर पढ़ना और नोट लेना शुरू कर दिया।
मेरे पास खोने को समय न था। अभी तक केम्ब्रिज में केवल छह महीने रहने की मेरी योजना थी, और इस अवधि में मैं मि० हेन के निर्देशन का पूरा-पूरा लाभ उठा लेना चाहता था। अक्टूबर में मुझे ऑक्सफोर्ड पहुँच जाना था, और वहाँ मेरे लिए शोध-स्वाध्याय, निर्देशन की क्या व्यवस्था होगी, इसका मुझे कोई अनुमान नहीं था।
इस बीच मुझे तीन-चार दिन के लिए ऑक्सफोर्ड जाने का सुयोग मिल गया। इंग्लैण्ड में एक रायल इण्डिया सोसाइटी है, पुरानी संस्था है। इसकी स्थापना इस उद्देश्य से हुई थी कि इसके द्वारा इंग्लैण्ड के लोगों को भारतीय संस्कृति, सभ्यता, जीवन का कुछ ज्ञान कराया जाये-उद्देश्य व्यावहारिक था, जिन पर हमें हुकूमत करनी है, उनको किसी हद तक जानना-समझना भी चाहिए, हालाँकि इस संस्था के माध्यम से जो जानकारी भारत के विषय में दी जाती थी, वह प्रायः सतही होती थी। सोसायटी की ओर से प्रतिवर्ष इंग्लैण्ड के किसी प्रसिद्ध नगर में तीन-चार दिनों का एक सेमिनार आयोजित किया जाता था जिसमें विभिन्न भारतीय विषयों पर व्याख्यान अथवा चर्चा-गोष्ठियाँ होती थीं। पहले उसमें केवल अंग्रेज़ों को निमन्त्रित किया जाता था, अब उसमें भाग लेने के लिए कुछ भारतीयों को भी बुलाया जाता है। उस वर्ष यह सेमिनार ऑक्सफोर्ड में होने को था और किसी संयोग से मेरे लिए भी निमन्त्रण आ गया था—मार्ग-व्यय, आवास, भोजन सबकी व्यवस्था सोसायटी की ओर से होने को थी। मैंने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। सोचा, इसी बहाने ऑक्सफोर्ड देख आऊँगा और प्रो० सी० एम० बावरा से परिचय भी कर आऊँगा, जिनके निर्देशन में सम्भवत: मुझे अपने शोध-कार्य को आगे बढ़ाना होगा।
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