जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
किसी नये नगर में प्रवेश करने पर आगंतुक की आँखें सबसे पहले उसकी इमारतों की ओर आकृष्ट होती हैं। ऑक्सफोर्ड पुराना विश्वविद्यालयी नगर है, शायद केम्ब्रिज से भी पुराना, और उसकी सबसे प्राचीन इमारतें हैं उसके कॉलेज और उसके गिरजे। ऑक्सफोर्ड को पहली नज़र से देखकर मुझे लगा जैसे उसकी सब अच्छी-बड़ी इमारतें बहुत पास-पास बना दी गयी हैं-केम्ब्रिज में वे ज़्यादा फैलाव में हैं। फिर केम्ब्रिज समतल भूमि पर बसा है, ऑक्सफोर्ड एक छोटी-सी पहाड़ी के ढलान पर, उसकी तराई में। निश्चय ही पहाड़ी पर से ऑक्सफोर्ड का विहगावलोकन करना बड़ा रोमहर्षक अनुभव होता, पर उसका संयोग मुझे न मिला। मुझे वाधम कॉलेज में ठहराया गया था, जिसके वार्डेन मि० बावरा थे, वे उन दिनों ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर भी थे। उन्होंने ही रायल सोसायटी के सेमिनार का उद्घाटन किया था।
कार्यक्रमों को रोचक बनाने का पूरा प्रयत्न किया गया था, फिर भी व्याख्यान एकाध ही गम्भीर थे, बाकी सामान्य, सतही विषयों पर-ज्ञानवर्धक से अधिक कौतूहलशामक। एक गोष्ठी में मेरा कविता-पाठ भी हुआ, कई अंग्रेज़ लेखकोंकवियों से मैंने परिचय प्राप्त किया, एक अंग्रेज़-दम्पति मेरी कविताओं से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बाद को मुझे अपने घर बुलाया, जो मानमथशायर में था। उन्होंने मेरी कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद की एक योजना बनायी-मैं अपनी कविताओं का शाब्दिक अनुवाद गद्य में दे दूँ और वे उसे कवित्वपूर्ण भाषा-छन्दों में बाँधे। परिणाम अधिक सन्तोषजनक नहीं लगे, फिर इस कार्य में मेरी विशेष रुचि भी नहीं थी, अभी तो मेरे सिर पर शोध का भूत सवार था और उसी से निपटने के लिए मेरे पास पर्याप्त समय न था।
ऑक्सफोर्ड में समय लेकर मैंने मि० सी० एम० बावरा से मुलाकात की। उन्होंने इस बात पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की कि केम्ब्रिज में मि० हेन की देखरेख में मैं ईट्स पर शोध कार्य कर रहा हूँ। मेरा विषय The Element of Irrational in the Poetry of W. B. Yeats (डब्ल्यू ० बी० ईट्स की कविता में अतार्किकता के तत्त्व) उन्हें भी पसन्द आया। उनकी इच्छा थी कि मैं ईट्स की दर्शन-पुस्तक AVision पर कुछ मौलिक सूझ-बूझ की बातें कह सकूँ, क्योंकि ईट्स स्वयं इस पुस्तक को बहुत महत्त्व देते थे और उनके कुछ समालोचक अगर उसे उनके ज्ञान का निचोड़ मानते थे तो कुछ उनकी सनक, बहक, बकवास। दो-ढाई महीनों में अपने कार्य की प्रगति का जो ब्यौरा मैंने बावरा को दिया था, उससे उन्हें सन्तोष था और चलते समय उन्होंने मुझसे पूछा था, 'अक्टूबर से तुम्हारे लिए यहाँ जगह सुरक्षित है, आ रहे हो न?' और मैंने तपाक से कहा था, 'निश्चय।'
तभी जैसे केम्ब्रिज से आता हुआ एक शंकालु स्वर मेरे कानों में गूंज उठा था, 'शायद नहीं।'
यह स्वर विश्वा का था।
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