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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


'विश्वा' कौन?

हमारे देश में बहुप्रचलित विश्वास है कि नक्षत्र मनुष्यों के भाग्य को प्रभावित करते या बदल देते हैं। मैंने अपने जीवन के अनुभवों से जाना है कि हमारे भाग्य को मोड़ देने या बदलने के लिए लाखों-करोड़ों मील दूर पड़े ग्रह-नक्षत्रों को प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं, हमारे पथ में सहज गति से आ पड़े लोग प्रायः ऐसा काम अनजाने ही कर जाते हैं। अपने जीवन में आये ऐसे कई लोगों की मुझे याद है, न मैं उन्हें खोजने गया था, न वे मुझे खोजते आये थे, पर वे मिले तो परिचयों और घटनाओं की ऐसी श्रृंखला बनी कि उसका अनुसरण कर मैं ऐसी जगह या स्थिति पर पहुँच गया, जो मेरे लिए महत्त्वपूर्ण ही नहीं, भाग्य-निर्णायक भी थी। ऐसे व्यक्तियों को मैंने अपनी निजी शब्दावली में 'नक्षत्र-पुरुष' या नारी संज्ञा दे रखी है।

मेरे लड़कपन में मेरे परिवार-पास-पड़ोस में एक शब्द इस्तेमाल होता था-नछत्रहा-फलनवाँ बड़ा नछत्रहा है। यह शब्द ऐसे व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता था, जिसका संग-संसर्ग कुछ अनिष्ट कर दे। मेरा नक्षत्र-पुरुष उसी शब्द से प्रेरित है, पर वह अनिष्टकारी तक सीमित नहीं। नक्षत्र-पुरुष मैं हर ऐसे आदमी को कहना  चाहूँगा जो भाग्य को किसी प्रकार प्रभावित करे।

केम्ब्रिज में भी मुझे एकाधिक नक्षत्र-पुरुष मिले।
सबसे पहले नक्षत्र-पुरुष विश्वनाथ दत्त थे।

विश्वनाथ दत्त, जिन्हें मैं बाद को विश्वा कहने लगा था, अमृतसर के निवासी थे। उन्हें मैंने पहले-पहल अपने एक अध्यापक-मित्र के घर पर देखा था, जिनके वे प्रिय शिष्यों में थे। लखनऊ युनिवर्सिटी से इतिहास और शायद अंग्रेज़ी में भी एम० ए० करने के बाद वे डॉक्टरेट करने के लिए केम्ब्रिज आये थे, पिता उनके समृद्ध व्यापारी थे और बहुत बड़ा खर्च उठाकर उन्होंने अपने बेटे को सपत्नीक तीन बरस केम्ब्रिज में रहने और पढ़ने के लिए भेजा था। विश्वा की पत्नी का नाम कमला था। वे मुझसे दो वर्ष पूर्व केम्ब्रिज पहुँचे थे। कमला ने भी किसी डिग्री या डिप्लोमा के लिए पढ़ना शुरू कर दिया था। विश्वा की अवस्था उस समय लगभग पच्चीस की होगी-केम्ब्रिज के प्रभावों को सचेत ग्रहण कर सकने की उपयुक्त अवस्था। जिस समय मैं केम्ब्रिज पहुँचा, विश्वा पूरी तरह केम्ब्रिज की परम्परा में भिन चुके थे।

मैं केम्ब्रिज की परम्परा को परिभाषित करने नहीं जा रहा हूँ, पर उसका एक सतही और विनोदी पक्ष है-केम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड की प्रतिद्वन्द्विता के प्रति सचेत होना, केम्ब्रिज की महत्ता का गर्व करना और ऑक्सफोर्ड को उसकी तुलना में हीन समझना-इसकी ओर मैं पहले भी संकेत कर चका है। दोनों यनिवर्सिटियों के विद्यार्थी जब आपस में मिलते हैं तो दो-एक फिकरे एक-दूसरे की युनिवर्सिटी की अवमानना में ज़रूर कस देते हैं। और विद्यार्थी ही नहीं, बहुत ऊँचे दर्जे पर पहुँचे हुए लोग भी, शायद अपने विद्यार्थी-जीवन के संस्कारों से अभिभूत, ऐसी फिकरेबाज़ी से बाज़ नहीं आते। आर्चबिशप आफ कैण्टरबरी, जो ऑक्सफोर्ड के स्नातक थे, जब केम्ब्रिज की एक धर्म-सभा में बोलने के लिए बुलाये गये तो उन्होंने अपने पहले ही वाक्य में फब्ती कसी कि चूँकि पिछले पचास बरसों में केम्ब्रिज ने कोई आर्चबिशप नहीं पैदा किया। इसलिए उसने सोचा, चलो ऑक्सफोर्ड से उधार माँग लें। ऐसे और भी उदाहरण मेरी स्मृति में हैं।

मैंने ऑक्सफोर्ड न जाने और केम्ब्रिज में ही सारा समय बिताने का जो निश्चय किया, उसका मुख्य श्रेय विश्वनाथ दत्त को है।

आते ही मैंने अपनी योजना उनसे बताई थी कि मैं छह महीने केम्ब्रिज रहूँगा और नौ महीने ऑक्सफोर्ड, और उन्होंने पहले दिन से ही मेरे ऑक्सफोर्ड जाने का विरोध किया था। इसमें केवल ऑक्सफोर्ड के प्रति उनकी विपक्षधरता (प्रेजुडिस) ही न थी। केम्ब्रिज में ही रहने के पक्ष में उनके पास कुछ तर्क भी थे। उनका कहना था, 'आप छह महीने केम्ब्रिज रहेंगे, नौ महीने ऑक्सफोर्ड रहेंगे, आप अपने शोधविषय पर अच्छी-से-अच्छी नोट-सामग्री एकत्र करेंगे, इंग्लैण्ड की सबसे बड़ी दो युनिवर्सिटियों के दो ईट्स-विशेषज्ञों का निर्देशन आपको प्राप्त होगा, फिर भी जब आप अपना शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत करेंगे और आपको डॉक्टरेट मिल जायेगी-मिल तो शायद जायेगी ही-तो डिग्री आपकी हिन्दुस्तानी मानी जायेगी-घी नहीं, डालडा। हिन्दुस्तान में जैसी मनोवृत्ति है, जिससे मैं बखूबी परिचित हूँ और जिससे आप भी अपरिचित न होंगे, उसमें 'फारेन' डिग्री के लिए जितनी इज्जत है, उतनी 'नेटिव' डिग्री के लिए नहीं। आदमी रुपये खर्चता है, मेहनत करता है, अपनी योग्यता बढ़ाता है तो यह भी चाहता है कि उसको मान्यता मिले, उसको उसका प्राप्तव्य दिया जाये। फिर आपका विषय इतिहास या अर्थशास्त्र होता तो बहत फर्क न पडता कि आप डिग्री इंग्लैण्ड से ले रहे हैं या हिन्दुस्तान से; आपका विषय तो अंग्रेज़ी भाषा और अंग्रेज़ी साहित्य से सम्बद्ध है। आपकी डिग्री तो टकसाली तभी साबित होगी, जब आप अंग्रेज़ों की चोटी की युनिवर्सिटी से, अंग्रेज़ी के गढ़ से अंग्रेज़ी डिग्री लें। आपने पन्द्रह महीने विदेश में रहने का प्रबन्ध किया है, केवल नौ महीने और रहने का इंतज़ाम कर लें, एक ही युनिवर्सिटी से सम्बद्ध रहें-ज़्यादा अच्छा होगा केम्ब्रिज से, और किसी वजह से नहीं तो सिर्फ इस कारण कि आप यहाँ पहले आ गये हैं और यहीं से डॉक्टरेट लेकर देश वापस लौटें।'

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