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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


कहानियाँ मेरे साथ 'मधुशाला' की रचना के समय से ही जुड़ने लगी थीं और कभी-कभी वे बड़ी ही अजीबो-गरीब शक्ल में मेरे कानों तक पहुँचती र्थी और एक दिन उनसे खिन्न होकर मैंने लिखा था, 'आकुल अन्तर' की पंक्ति है, 'नहीं यह कोई बात नयी; जहाँ कहीं मैं गया कहानी मेरे साथ गयी।'

मैंने मित्र को विश्वास दिलाया कि जो उन्होंने सुना है उसमें कोई तत्त्व नहीं। बातें बहुत से कानों, ज़बानों पर उतरती-चढ़ती एकदम विकृत हो गयी हैं। मेरे लिए तो कब की समाप्त, पर मुझमें रुचि रखने वाले न जाने किस कारण उन्हें अपनी स्मृति में बनाये, दुहराये, अदलते-बदलते चले जाते हैं।

मित्र को मेरी बातों पर विश्वास नहीं हुआ।

किसी अन्य परिस्थिति में मित्र की बात सुनकर शायद मैं हँसकर टाल देता। पर उन दिनों में जिन मानसिक तनावों में था, उसमें मैं बहुत उद्विग्न हुआ। अब तो उस उद्विग्नता की साक्षी 'कड़आ अनुभव'* की पंक्तियाँ हैं, जो मैंने उस समय लिखी थीं।
*देखिये 'कडुआ अनुभव' शीर्षक कविता, मेरे काव्य संग्रह 'बुद्ध और नाचघर' में।

कुछ दिनों के बाद मित्र वही कहानी दिल्ली की एक पार्टी में सुना रहे थे, जिसमें नेहरू-पण्डित के सदस्य उपस्थित थे।

सुनने वालों में थे इलाहाबाद के मेरे एक मित्र भी।

उन्होंने वहाँ से लौटकर सारी बातें तेजी को बतायीं।

तेजी अपनी छोटी-मोटी परेशानियाँ, जो दिनानुदिन के जीवन में खड़ी ही हुआ करती थीं, मुझे न लिखती थीं, पर इस अफवाह को वे मुझसे न छिपा सकी।

मुझमें उनका इतना दृढ़ विश्वास था कि इस पर अपनी प्रतिक्रिया बतलाते हुए उन्होंने मुझे लिखा कि अगर ईश्वर भी आकर मेरे सामने ऐसा कहता तो मैं उससे फौरन कहती कि तू झूठा है।

फिर भी उसकी सच्चाई की आशंका का एक सूक्ष्म सूत्र उनके पत्र में मौजूद था, जिसने उनकी शब्दावली को कातर कर दिया था।

तेजी की तेजी-जो वे कभी-कभी दिखा ही जाती थी तो मैं बर्दाश्त कर जाता था, वह मुझे प्रिय भी हो गयी थी, पर उनकी विनम्रता, उनका दैन्य भाव, उनके साश्रु नयन मेरे लिए असह्य थे। मैंने तेजी को एक छोटा-सा पत्र लिखा, पर एक-एक शब्द जैसे अपने रक्त से कि उनकी सच्चाई में मेरे शत्रु को भी सन्देह न हो।

पर उन्हें आश्वस्त करने से अधिक मैं स्वयं अपने को आश्वस्त करना चाहता था।

मित्र ने कहाँ-कहाँ यह कहानी न सुनाई होगी? क्या शिक्षा मन्त्रालय में भी नहीं?

क्या उन्हें पता न होगा कि मेरा प्रार्थनापत्र वहाँ पहुँचा था, एक बड़ी आवश्यक माँग के लिए, जिस पर मेरा भविष्य निर्भर था?

क्या उन्हें इसका ध्यान न होगा कि यह कहानी मेरे कितने विरुद्ध जायेगी?

क्या वे जानबूझकर मेरा अहित करना चाहते थे?

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