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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


मुझे 24 महीने प्रवास में रहने और पढ़ाई के खर्च की आवश्यकता थी, और मैं दस महीने का केवल रहने-सहने का खर्च पास में रखकर केम्ब्रिज में बैठा था। जिसे मोटर से किसी ऐसे लम्बे सफर पर जाना हो, जिसके रास्ते में पेट्रोल मिलने की कोई सम्भावना न हो, वह निश्चिन्ततापूर्वक तभी अपनी कार चला सकता है, जब उसका टैंक फुल हो। और जिसका टैंक फुल न हो, उसकी आशंका और भय का अनुमान सहज ही किया जा सकता है-न जाने कब, कहाँ पेट्रोल खत्म हो जाये और उसे अपनी यात्रा स्थगित कर देनी पड़े। क्या ऐसी मन:स्थिति शोध जैसे एकाग्रता माँगने वाले काम के लिए अनुकूल हो सकती है?

दो वर्ष केम्ब्रिज में रहने की योजना बनाने के पूर्व मैंने कुछ सोचकर अपने को आश्वस्त कर लिया था-बी० एन० कौल ने जिस राशि को इण्डिया हाउस के द्वारा भेजने का वादा किया था, उसे वे वित्तीय वर्ष के अन्त में भेजवा ही देंगे, जिससे मुझे पाँच महीने और रहने का खर्च मिल जायेगा। बाकी 10,000/- रुपये जो मुझे नौ महीने और केम्ब्रिज में रहने, कॉलेज की फीस देने, और वापसी सफर के लिए चाहिए, उसके लिए मैं शिक्षा मन्त्रालय को प्रार्थना-पत्र भेजूंगा। नेहरूजी ने मौलाना आज़ाद से मेरा परिचय करा दिया था, मेरी 'बोनाफाइड'-हिन्दी में क्या कहेंगे, 'नाम-काम-धाम'?- की तसदीक कर दी थी, केम्ब्रिज मैं किसलिए जा रहा था, यह भी उन्हें बता दिया था, साथ ही मेरे प्रति अपनी कृपा नहीं तो सहानुभूति और मेरे कार्य के प्रति अपनी अभिरुचि का संकेत कर दिया था। मैं आशा कर सकता था कि मेरे प्रार्थनापत्र पर अवश्य ध्यान दिया जायेगा, पर शिक्षा-मन्त्रालय से उत्तर की प्रत्याशा में केवल दिन बीतते रहे, याद दिहानी के पत्रों का भी कोई असर न हुआ। अन्ततोगत्वा मैंने नेहरूजी को लिखा, पर पत्र जाने और उत्तर आने की संभाव्य अवधि के बाद मैंने केवल प्रतीक्षा और निराशा के दिन ही गिने। कारण क्या था?

मेरे एक मित्र थे, जो कि शिक्षा मन्त्रालय में काफी ऊँचे पद पर काम कर रहे थे। उन दिनों उनकी पोस्टिंग अमरीका-स्थित भारतीय राजदूतावास के शिक्षा विभाग में हो गयी थी, वे श्रीमती पण्डित के प्रिय पात्रों में थे, जो उस समय वहाँ राजदूत थीं।

मित्र किसी निजी या सरकारी काम से भारत जा रहे थे और दो-चार दिनों के लिए लन्दन रुके थे। मुझे उनके कार्यक्रम का पता लगा तो मैं लन्दन जाकर उनसे मिला। कई घण्टे उनके साथ रहा, बहुत दिनों बाद उनसे मिलना हुआ था, अपनेअपने अतीत, वर्तमान और भविष्य की योजनाओं के विषय में दोनों को बहुत कुछ . कहना-सुनना था।

मैं अपना शोध-कार्य पूरा करने को दो वर्ष केम्ब्रिज में रह रहा हूँ, मेरी इस बात को उन्होंने कुछ सन्देह की मुद्रा से सुना, जैसे भीतर-भीतर कह रहे हों, गैरों से कहने के लिए यह अच्छा है, पर अपने दोस्त से ही क्यों छिपाने की कोशिश करते हो?

आखिर उनसे न रहा गया। बोले, 'अमरीका में फलाँ से तो तुम्हारे बारे में मैं कुछ और ही सुनकर आया हूँ कि तेजी से तुम्हारा विवाह-सम्बन्ध विच्छेद होने की सीमा पर पहुँच गया है, कि तुम इलाहाबाद की एक मुसलमान लड़की के प्रेम में हो जो आजकल इंग्लैण्ड में है और उसी के साथ शादी करके तुम यहीं व्यवस्थित होना चाहते हो, कि तेजी के भरण-पोषण के लिए तुमने कुछ भी वहाँ नहीं छोड़ा, यहाँ तक कि अपने छोटे-छोटे बच्चों का भी कुछ ख्याल नहीं किया। इसीलिए तेजी किसी प्रकार की नौकरी की खोज में है।'...

मेरी स्मृति सहसा बारह बरस पीछे जाकर घटनाओं के अम्बार को खुलिहारने लगी।

उस मुसलमान लड़की का जन्म एक उदार संभ्रांत परिवार में हुआ था, शिक्षा उसकी कान्वेन्ट में हुई थी, पर विवाह उसका एक निहायत दकियानूसी परिवार में हो गया। ससुराल कारागार हो गयी, जिससे निकलने को वह तड़प रही थी। तभी किसी ने उसका परिचय मुझसे कराया था। परिचय ने निकटता का रूप लिया। किसी क्षण में अपनी बेड़ियों से त्राण पाने को उसने मेरी ओर भी देखा था, सम्भवत: मुझे अपने उन दिनों के अन्धकार से त्राण दिलाने के लिए भी। और एकदो बार उसने मेरे 9-ए, बेली रोड में आकर मेरे एकाकीपन को सहलाया भी था। उसके आगे कुछ नहीं...

क्या मैंने उसकी चर्चा कभी किसी से की थी? की हो तो कुछ अस्वाभाविक नहीं। किसी खास नारी से उपेक्षित हो, किसी आम नारी को आकर्षित करने का गर्व पुरुष शायद ही छिपा पाता हो। घटित ठहर गया था, पर कथित चलता गया था।

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