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जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर

बसेरे से दूर

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 665
आईएसबीएन :9788170282853

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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।


एक और स्थिति हो सकती है। सृजन से विश्रान्त मन के उद्विग्न होने की बात शायद ही कभी सनी गयी हो. विश्रान्त मन सम्भवतः सजन से परम शान्ति को उपलब्ध होता हो-शायद सन्त सर्जकों का ऐसा ही अनुभव हो, और कलात्मक या सृजनात्मक तनाव केवल उस परम शान्ति की पूर्व स्थिति-वास्तविकता तो यही है कि शान्ति का अनुभव परिपूर्ण तभी हो सकता है, जब उसकी पूर्व पीठिका में किसी तरह तनाव हो, भले ही वह कलात्मक अथवा कृत्रिम ही क्यों न हो।

इस ऊहापोह में तुलसीदास हमारी कुछ सहायता कर सकते हैं। 'मानस' तो सृजन ही कहा जायेगा। उसके सृजन के हेतु में तुलसीदास ने दो बातें कहीं-'स्वांतः सुखाय' और 'स्वांतस्तमः शांतये'। 'सुख' से शान्ति का अर्थ सहज ही ले सकते हैं, 'तम' से उद्विग्नता, खिंचाव, तनाव, अशान्ति का। कह सकते हैं कि तुलसी ने स्वांत: तम से सृजन आरम्भ किया, और सृजन करते-करते स्वांतः सुख को उपलब्ध हुए, गो तुलसीदास ने मानस के आरम्भ में 'स्वांतः सुखाय' लिखा, और अन्त में 'स्वांतस्तमः शांतये:'। सृजन की यात्रा में यह बिल्कुल सम्भव है कि यात्री प्रस्थान-बिन्दु पर लक्ष्य की ओर देखे और लक्ष्य पर पहुँचने पर उलटकर प्रस्थानबिन्दु की ओर।

आप पूछ सकते हैं कि यहाँ इतने विस्तार से सृजन की इस प्रक्रिया की चर्चा करने की क्या आवश्यकता पड़ गयी? मैं आपसे एक वाक्य में कहना चाहता था कि केम्ब्रिज में चाहे मैंने कविता लिखी, चाहे डायरी, चाहे शोध-प्रबन्ध, सिवा एकाध अपवाद के, सब कुछ मैंने एक तनाव की स्थिति में किया। हो सकता है, जैसा कि मैंने ऊपर सुझाव दिया है, उस तनाव से मुक्ति पाने को ही मेरा मन यह सब कुछ सृजन करता रहा। तनाव की स्थिति में जो लिखा गया, वह किस स्तर का है? वही बगैर तनाव की स्थिति में लिखा जाता तो मेरे कैसा होता? तनाव की स्थिति में सृजन न किया जाता तो मन पर उसका क्या प्रभाव पड़ता? - आदि कई प्रश्न हैं, जिन पर आप भी सोच सकते हैं।

केम्ब्रिज में लिखी मेरी कविताएँ तीन संग्रहों में आ चुकी हैं, डायरी भी प्रकाशित हो चुकी है, मेरे शोध-प्रबन्ध के दो संस्करण हो चुके हैं। इनका आपकी दृष्टि में कुछ मूल्य हो तो उनके पीछे जो तनाव रहे हैं, शायद उनके प्रति भी आपका कौतूहल हो।

अपनी मुझ पर सर्वथैव निर्भरा पत्नी और अपने दो छोटे-छोटे, प्यारे-प्यारे बच्चों को छोड़कर दो बरस के लिए सात समुन्दर पार जा बैठने से जो तनाव मेरे मन में हो सकता था, उसे मैं कितनी ही बार दोहराऊँ, कितनी ही तरह से, उसका पूरा आभास मैं आपको नहीं करा सकता। इसलिए उसे मैं आपकी ही कल्पना पर छोड़ता हूँ। मेरे लिए और तरह के भी तनाव थे। उन तनावों के लिए समय पर मैंने समाज-संसार से लेकर नियति-नियन्ता तक सबको कोसा था। अब समय बीत जाने पर, मैं ऐसा समझने लगा हैं कि तब जो कछ मैं उपलब्ध कर सका. चाहे शोध-साफल्य के रूप में, चाहे काव्य के रूप में, चाहे गद्य-रचना के रूप में, वह सब उन तनावों के कारण ही सम्भव हो सका- उनकी चुनौती स्वीकार करने से, उनके साथ संघर्ष करने से, उनसे पराजित न होने से और उनकी कटुता और कठोरता से भी अपने लिए-शायद औरों के लिए भी-कुछ प्रेरक, कुछ उत्साहवर्द्धक संजो लेने से-

Then, welcome each rebuff
That turns earth's smoothness rough,
Each sting that bids nor sit nor stand
But go!

तो फिर हर अड़गे का स्वागत,
जो ज़िन्दगी के चौरस रास्ते को ऊबड़-खाबड़
बना देता है,
हर ठोकर का (स्वागत), जो कहती है, न बैठो,
न खड़े रहो,
बस आगे बढ़ते चलो।

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