जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
कभी मैंने पढ़ा था, 'काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।' मैं हमेशा सोचा करता था कि इसका लेखक काव्य को आनन्द के लिए पर्याप्त नहीं मानता, काव्य के गुण-दोष विवेचन की चर्चा में सुख मानता है, काव्य का 'शास्त्र' तो वही हुआ। निश्चय इसका लेखक कोई काव्य-रसिक नहीं, किसी विद्यापीठ में पाठयपस्तक पढाने वाला अध्यापक होगा। हेन के सम्पर्क में मझ पर इस संस्कृत की पंक्ति का एक दूसरा ही अर्थ खुला। हेन के साथ 'काव्य' की भी चर्चा होती और 'शास्त्र' की भी-यानी शोध-सम्बन्धी छानबीन की, विश्लेषण-परीक्षण की। और यह मि० हेन जैसे कुशल कीमियागर का ही काम था कि वे 'काव्य' को 'शास्त्र' की चर्चा से ज्ञानमय और 'शास्त्र' को 'काव्य' की चर्चा से रसमय कर देते थे। हेन ने मेरे शोधार्थी को ही नहीं सँवारा, मेरे अध्येता और अध्यापक को भी, लेकिन इसका मुझे बड़ा खेद है कि उसका लाभ मुझे जिन्हें पहुँचाना था, उन्हें मैं न पहुँचा सका।
सृजन के सम्बन्ध में एक समस्या मेरे मन में बहुत दिनों से उठती रही है और उस पर मैंने बहुत सोचा-विचारा है, पर उसका कोई समाधान मुझे अब तक नहीं मिला। समस्या संक्षेप में इस प्रकार रखी जा सकती है कि सृजन के लिए-और सृजन को मैं कविता लिखने तक ही सीमित न रखना चाहूँगा, इसके अन्तर्गत शोधप्रबन्ध जैसी चीज़ लिखना भी रखा जा सकता है-शान्त मन:स्थिति अधिक अनुकूल पड़ती है या उद्विग्न, यानी मन की उपशमित, विश्रान्त स्थिति या तनावखिंचाव की स्थिति। दुनिया के सर्जकों ने शायद दोनों मन:स्थितियों में सृजन किया है। मैं स्वयं अपने सृजन की घड़ियों को याद करता हूँ तो लगता है कि मैंने दोनों स्थितियों में लिखा है। दोनों स्थितियों में सृजन की सम्भावना मान लें तो एक दूसरा सवाल उठता है कि किस स्थिति में सृजन ज़्यादा अच्छा होता है, और यहाँ मुझे भय है, सर्जक स्वयं निष्पक्ष निर्णय नहीं दे सकता। समीक्षक शायद बुरे-अच्छे या ज़्यादा अच्छे का विवेचन कर सकता है, किसी हद तक निष्पक्षता से भी, पर वह कैसे जानेगा कि कौन रचना किस मन:स्थिति में की गयी, जब तक कि सर्जक ही उसे उसका ज्ञान न करा दे। और सर्जक का ज्ञान सदा विश्वसनीय होगा, इसमें मुझे सन्देह है। क्यों?
क्योंकि सृजन का क्षण सर्जक को अपनी सृष्टि में इतना डुबाने वाला होता है कि उसे यह ज्ञान ही नहीं रहता कि वह किस मन:स्थिति में है। सृजन बड़ी पेचीली प्रक्रिया है और मन पारे से भी अधिक चंचल। सृजन आरम्भ होते ही, माध्यम कोई भी हो, सर्जक अपनी सृष्टि का अंग बन जाता है, और मेरा ऐसा अनुभव है, वह अपने मन की स्थिति का न स्वामी रह जाता है, न दास, न भोक्ता ही। सृजन की प्रेरक स्थिति को परिणाम और परिणाम को सृजन की प्रेरक स्थिति समझना मन के लिए बायें हाथ का खेल है। हो सकता है, उद्विग्न मन विश्रान्ति पाने के लिए ही सृजन करता हो। अंग्रेज़ी में सृजन के लिए एक शब्द compose (कम्पोज) करना भी प्रयुक्त होता है, विशेषकर संगीत के सन्दर्भ में। compose होने का अर्थ विश्रान्ति पाना भी है। शायद composed स्थिति पाने के लिए मन compose करना आरम्भ करता हो या compose करते-करते मन composed (विश्रान्त) हो जाता हो। एक ही शब्द के दो अर्थों के बीच सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक अनुभव नहीं छिपा, इसे मानने को मैं सहसा तैयार नहीं हो सकता। शायद मेरा सृजन ही खिंचाव, तनाव अथवा उद्विग्नता की मन:स्थिति की उपज हो, विश्रान्त मन सृजन के झंझट में क्या पड़ना चाहेगा, गो मन इतना अनग्रकथनीय (unpredictable) है कि उससे यह बईद नहीं कि वह बैठे-बिठाये बुलाये कि आ बैल मुझे मार। फिर एक बात और समझ लेनी चाहिए, जो ज़्यादा बारीक है और शायद सर्जक के लिए ही अनुभवगम्य-सृजनशीलता अपने आपमें एक तनाव पैदा करती है-कलात्मक तनाव-भाव और अभिव्यक्ति के माध्यम के बीच। यह भी हो सकता है कि सर्जक वास्तविक तनाव के अभाव में तनाव का रस पाने के लिए अपने को एक कलात्मक तनाव में डाल देता हो-विश्रान्ति की स्थिति से तनाव की स्थिति अधिक जीवन्त है, इतना तो मानना ही होगा, फिर उसके 'रस' में क्या आपत्ति हो सकती है!
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