जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
बावा की भी परीक्षा का परिणाम घोषित हो गया है। 'स्टेटिस्टिक्स' में उसे डिप्लोमा मिला है। प्रथम स्थान जिसकी उसे आशा थी, शायद, उसे नहीं मिला।
हम दोनों ही अपने-अपने कमरों में अपने-अपने सामान की पैकिंग में लगे हैं। कितना सामान इकट्ठा हो गया है मेरे चारों तरफ ! सोचना है, क्या ले जाना है, क्या छोड़ना है, क्या सामान लकड़ी के क्रेटों में जायेगा, क्या बक्सों में। 'हल' में जाने वाले कौन-से बक्से होंगे, केबिन में रखने वाला कौन-सा बॉक्स। कागज़ों की छंटाई भी घण्टों होती है। शोध के लिए एकत्र नोटों की कापियाँ और थीसिस के सातों ड्राफ्ट बचाकर रखता हूँ। तेजी मेरे श्रम का सबूत पायेंगी, बच्चे कभी उनसे अपने काम के लिए प्रेरणा लेंगे।
डिग के कमरों में सेल्फ सर्विस थी, यानी हमें अपना कमरा अपने आप साफ करना पड़ता था।
सात-आठ दिन से बावा ने अपने कमरे की सफाई बन्द कर दी है। इतने रद्दी कागज़ फाड़-फाड़कर उसने फेंके हैं कि उसका कमरा चिरे-फटे-गन्दे कागज़ों का एक समुद्र हो गया है, उसी में छोटे-छोटे टापुओं के समान उसके दो बॉक्स, एक बड़े टापू के समान उसकी चारपाई।
मुझे भी अपने बहुत-से कागज़ों को नष्ट करना पड़ा है, पर मैं रोज़ उन्हें ले जाकर बाहर फेंक आता हूँ। कमरे की झाड़-पोंछ भी रोज़ करता हूँ। कमरे को पहले से ज़्यादा ही साफ रखता हूँ।
बावा मुझे यह सब करते देखकर हँसता है। व्यंग्य करता है, मालूम होता है, अभी आपको केम्ब्रिज में और रहना है।'
'नहीं, बात ऐसी नहीं है, मैं चाहता हूँ कि अगर कभी मुझे यह कमरा याद आये तो मैं इसका साफ-सुथरा रूप आँखों के आगे देखें। जाते समय यह कमरा मैं जैसा देखकर जाऊँगा वैसा मेरी स्मृति में बहुत दिनों तक बना रहेगा।'
आज बाईस वर्षों के बाद भी वह कमरा मेरी आँखों के सामने है-तीसरी मंज़िल पर कमरा-सड़क की ओर दो खिड़कियाँ, उस पर पतली जाली के परदे, खिड़की के पास काम करने की मेज़-कुर्सी, बगल में खड़ी मेज़, कुर्सी से ऊबता हूँ तो खड़ा हो जाता हूँ, खड़े-खड़े थकता हूँ तो बैठ जाता हूँ। उस कोने में बिजली की अँगीठी, साथ की अलमारी पर खाना खाने-बनाने के सामान-बर्तन। उस कोने में चारपाई, साथ की दीवार से लगी अलमारी किताबों, कापियों से लदी। चारपाई के साथ एक आरामकुर्सी है, कभी थककर उस पर बैठा हूँ और थोड़ी देर को आँख अँप गयी है, और मैं अपने घर-परिवार के बीच पहुँच गया हूँ या घर-परिवार मेरे पास आ गया है...
बावा कहता है, मैं तो अपने कमरे को कभी नहीं याद करूँगा।
क्यों याद करेगा ! एक बड़ी दु:खद स्मृति इसके साथ जुड़ी है, इसी में उसे अपने पिता के अचानक देहावसान का तार मिला था और उसने रो-रोकर कमरे को सींच दिया था।
मेरे भी कितने तनाव, खिंचाव, हृदय-मन-मस्तिष्क मथने वाले क्षण इस कमरे से जुड़े हैं, पर उनसे त्राण के भी, राहत के भी। तनाव-खिंचाव के क्षण शायद भूल भी जायें, राहत के क्षण कैसे भुलाये जा सकेंगे; क्योंकि वे स्वर बन गये हैं, शब्द बन गये हैं, लय बन गये हैं।
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