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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...


:४०:

नियुक्त समय पर छोटी रानी बड़ी रानी के पास आईं। बड़ी का चरण-स्पर्श द्वारा अभिवादन किया। बड़ी ने आशीर्वाद देना चाहा। क्या आशीश देतीं? कोई गुप्त वेदना हृदय में जाग पड़ी और मुख पर आँसुओं की बूंदें ढलक आईं। छोटी रानी भी चूंघट मारे रोईं, परंतु बड़ी रानी को यह नहीं मालूम हुआ कि उनके आँसुओं ने यूंघट को भिगो पाया या नहीं।

बड़ी रानी की समझ में जब कुछ समय तक यह न आया कि कौन-सी बात पहले कहँ, तब छोटी रानी बोलीं, 'जो कुछ मुझसे बुरा-भला बना हो, उसे विसार दिया जाए, क्योंकि अब यह सोचना है कि इतने बड़े जीवन को कैसे छोटा किया जाए।'

बड़ी ने कहा, 'मैं तो आज ही जीवन को समाप्त करने के लिए तैयार हूँ, अब और क्या देखना है, जिसके लिए जिऊँ।'

छोटी रानी ने जरा घूँघट उधारा। बोलीं, 'मैं केवल एक अनुष्ठान के लिए अब तक जीवन बनाए हुए हूँ। बात फैल भी गई है, परंतु उसकी चिंता नहीं। आज्ञा हो, तो सुनाऊँ?'
'अवश्य, अवश्य।'

'जनार्दन हम लोगों के सर्वनाश की जड़ है।'

'अब उसकी चर्चा व्यर्थ है।'

'वह चर्चा अमिट है। क्या भूल गईं, किस तरह से उसने महाराज के हस्ताक्षर का जाल बनाया? किस तरह उसने एक अनजान लड़के को अपना खिलौना बनाकर सारे राज्य की बागडोर अपने हाथ में रखी है?'

इन प्रश्नों का बड़ी रानी ने कोई उत्तर नहीं दिया। नीचा सिर कर लिया। छोटी रानी ने जरा धीमे होकर कहा,'असल में हम लोग राज्य के अधिकारी हैं। बिराने को अपनी संपत्ति भोगते देखकर छाती सुलग जाती है। यही मेरा दोष है, यही मेरा पाप है।'

'पर इसका प्रतिकार ही क्या हो सकता है? जो भाग्य में लिखा है,सो होकर रहेगा?'

'हमारे भाग्य में यह सब दुख और जनार्दन के भाग्य में हमारा अपमान करना ही लिखा है, यह अभी कैसे कहा जा सकता है?'

बड़ी रानी छोटी का मुंह ताकने लगीं।

छोटी रानी ने उत्तेजित होकर कहा, 'हमारे भाग्य में राज्य लिखा है, प्रजापालन लिखा है, और जनार्दन के भाग्य में प्राणवध का दंड बदा है। मुझे देवी ने सपना दिया है।
देवी के सपने की बात सुनकर बड़ी रानी बोलीं, 'अलीमर्दान को तुमने क्यों निमंत्रण दिया? इसे लोग अच्छा नहीं कहते।'
'न कहें अच्छा।' छोटी ने कहा, 'कष्टों से पार पाने के लिए मैंने उसके पास राखी भेजी थी। और क्या करती?'
'वह देवी का मंदिर तोड़ने आया है।'

'नहीं।'

'और मंदिर की पुजारिन को, जो देवी का अवतार भी मानी जाती है, नष्ट करने।'

'इसमें बिलकल तथ्य नहीं। हमारे विरुद्ध प्रजा को उभारने के लिए ही जर्नादन इत्यादि ने यह षड्यंत्र खड़ा किया है।'

'लोचनसिंह सौगंध खाकर कहता है।'

'ओह! उस नीच, नराधम पशु की बात मत कहो। उस जैसी हृदयहीनता पत्थर की शिलाओं में भी न होगी। ऐसा मूर्ख, ऐसा अभिमानी-'

बड़ी रानी ने धीरे से छोटी रानी की उग्रता के बढ़ते हए वेग को रोकने के लिए टोककर कहा, 'अपने स्वभाव को अपने हाथ में रखो। जो कुछ करो, समझ-बूझकर करो। हमारे निर्बल हाथों में कोई शक्ति नहीं। जो सरदार किसी समय तरफदार थे, उनके जी मुरझा गए हैं। अब कदाचित् कोई साथ न देगा।'

'यह सब पाजीपन जनार्दन का है।' छोटी रानी ने धाराप्रवाह में कहा, 'जिस समय सरदार मुझे नंगी तलवार लिए घोड़ी की पीठ पर देखेंगे, उस समय उनके बाहु फड़क उठेंगे। न्याय और धर्म का साथ देने में मनुष्यों को विलंब नहीं होता। बिखरी हुई, सोई हुई शक्तियाँ, मुरझाई हुई अचेत आत्माएँ धर्म के लिए सिमटकर प्रचंड रूप धारण करती हैं और-' 


उदंड प्रबलता के इन काल्पनिकचित्रों से जरा भयभीत होकर बड़ी रानी बोली, 'तुम ठीक कहती हो परंतु इस विषय पर फिर कभी शांति के साथ बातचीत होगी, तब तक सावधानी के साथ अपने मन में रखो।'

'मैं किसी से नहीं डरती। छोटी रानी ने कहा, 'मन की बात मन में ही बंद कर लेने से बह वहीं होकर रह जाती है। आपको सीधा पाकर ही तो इन लोगों की बन आई है। आप कैसे इन लोगों की करतूतों को सहन करती हैं?'
इसका उत्तर बड़ी रानी ने एक लंबी साँस लेकर दिया। थोड़ी देर में छोटी रानी चली गई। बड़ी रानी ने सोचा-यदि मैं छोटी के साथ अपनी शक्ति को मिला देती तो ये दिन सिर न आते। मैं अपने को निस्सहाय, निराश्रय समझकर ही इस हीन दशा को पहुँची हूँ।

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