ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
कुंजरसिंह अपने साथियों को लेकर अँधरे में सिंहगढ़ से निकल आया था। सिंधु नदी
के उत्तर की ओर कई कोस तक दलीपनगर का राज्य था। वन और पर्वतों से आकीर्ण;
परंतु कोई दृढ़ किले उस ओर नहीं थे। जहाँ दलीपनगर की सीमा खत्म हुई थी, वहाँ
से कालपी का सबा शुरू हो गया था। उस ओर चले जाने पर दलीपनगर के दीर्घ क्षेत्र
से संबंध टूट जाता और कोई पक्का आश्रय मिलता नहीं। ऐसी दशा में उसने पूर्व की
ओर पहज और बेतवा नदियों के आस-पास ठहरकर अपनी ट्टी हुई शक्ति को फिर से
जोड़ने का निश्चय किया। उसके संगी भीराजी हो गए, परंतु साथ बहुत थोड़ों ने
दिया। गिरती हुई अवस्था में भी आशा के बल पर साथी बलिदान करने के लिए
अनुप्राणित रहते हैं, परंतु निराशा की दशा में बलिदान लगभग असंभव हो जाता है।
इसलिए कुंजरसिंह के साथियों की संख्या क्रमशः कम होती चली गई।
सिंहगढ़ से निकलने के उपरांत दो-एक दिन भटकने में लग गए। शीघ्र किसी निश्चय पर पहुँचजाने का अभ्यास न होने के कारण कभी उत्तर और कभी पूर्व की ओर भटकते गए। पहूज के निकट की उर्वरा शस्य-श्यामला भूमि शीघ्र त्यागकर वन में पहुँचे। वहाँ भी एक-आध दिन ही रह पाए। अंत में पच्चीस-तीस कोस की उद्देश्यहीन यात्रा समाप्त करके इन लोगों ने बेतवा-किनारे के घोर वन और सुरक्षित गढ़ों की ओर दृष्टि डाली।
कुछ ही समय पहले प्रसिद्ध चंपतराय ने बेतवा के जंगल, भरकों और इन छोटे-छोटे किलों के आश्रय से मुगल सम्राट औरंगजेब की नाकों दम करके बुंदेलखंड की स्वाधीनता का अनुष्ठान किया था। अभी लोगों को वे दिन याद थे। कुंजरसिंह की धारणा और विचार पर भी उस स्मृति का प्रभाव पड़ा। उसने विराटा और रामनगर के पड़ोस में अपनी योजना सफल करने की ठानी। इन गढ़ों के पड़ोस में वह पहुँच चुका था।
झाँसी से पूर्वोत्तर कोण में विराटा की गढ़ी, जिसका अवशेष अब एक मंदिर-मात्र है, पच्चीस मील की दूरी पर है। रामनगर और विराटा में केवल कोस-भर का अंतर है। दोनों बेतवा के किनारे भयंकर वन में छिपे से अर्द्ध-भग्नावस्था में अब भी पड़े हैं।
विराटा से दो कोस दक्षिण-पश्चिम की ओर मुसावली, एक छोटा-सा उजड़ा गाँव है। उन दिनों भी वह बड़ी जगह न थी। परंतु छिपाव और रक्षा का साधन वहाँ सदारहा है। नालों और काँटेदार पेड़ों की विस्तृत भरमार है। मुसावली की पहाड़ी इस जंगल की ओट का काम करती है।
उन दिनों विराटा में दाँगी राजा राज्य करता था और रामनगर में एक बुंदेला
सरदार रहता था। ये दोनों कभी पूर्ण स्वतंत्र नहीं रहे, परंतु इनकी अधीनता भी
नाममात्र की
थी। कभी कालपी को कर देते थे, कभी ओरछा को और कभी किसी को भी नहीं।
औरंगजेब के काल तक ये लोग भांडेर या कालपी के मुगल सूबेदार की मार्फत मुगल साम्राटों को कर चुकाते रहे। औरंगजेब की दक्षिण चढ़ाइयों के समय शासन शिथिल हो गया। उसके मरने के उपरांत जो राजनीतिक भूकंप आया उसमें ये लोग करीब-करीब स्वाधीन हो गए। स्वाधीनता-यज्ञ के बड़े यजमानों का ये लोग साथ देते रहते थे, परंतु स्वयं खुल्लमखुला किसी शक्ति के कोप को उत्तेजित नहीं करते थे। इसीलिए इतने दिनों बचे रहे।
चंपतराय ने ऐसे लोगों का खूब उपयोग किया था। कुंजरसिंह ने भी इनके उपयोग को
ही अपना एकमात्र आश्रय निर्धारित किया।
परंतु एकाएक इनमें से किसी के पास सहायता मांगने के लिए पहुँचना उसने उचित
नहीं समझा।
उसने सोचा, मुसावली में पहुँचकर स्थिति का निरीक्षण और विराटा तथा रामनगर के सरदारों से मिलकर अपने बल की पुनः स्थापना करूंगा। यदि संभव न हआ, तो विराटा-वन के किसी एकांत स्थान में भगवती दुर्गा का स्मरण करते-करते जीवन समाप्त कर दूंगा और अलीमर्दान इस स्थान पर किसी मतलब से चढ़ाई करे, तो उसके विरोध में शरीर-त्याग करना राज्य-प्राप्ति से भी बढ़कर होगा। उसे मालूम था कि कुमुद कहीं विराटा के आस-पास ही है।
परंतु इस योजना में कुंजरसिंह के बचे-खुचे सरदार ऊपर से ही सहमत हुए, भीतर से उन्हें इस योजना की अंतिम सफलता पर कोई विश्वास न था। दो-तीन दिन बाद ये लोग भी अपने घरों को चले गए और समय आने पर सहायता करने का वचन दे गए।
अलीमर्दान को इस तरह की कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा। पालरवाले दस्ते को उसने झाँसी के उत्तर में दस-पंद्रह कोस के फासले पर पहज के किनारों पर पा लिया। वहाँ से वह भांडेर चला गया। कालेखाँ भी उसे भांडेर में आकर मिल गया। वहीं से अलीमर्दान आगे की कतर-ब्योंत का हिसाब लगाने लगा।
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