ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
: ६४:
कुमुद की इच्छा न थी कि नरपति दलीपनगर के राजा को आमंत्रित करने जाए, परंतु वह उसे दृढ़ता और स्पष्टता के साथ न रोक सकी। शायद कुमुद को स्पष्टता या दृढ़ता उस समय कुछ भी पसंद नहीं आई। भीतरी इच्छा के इस तरह अवरुद्ध रह जाने के कारण उसका मन चंचल हो उठा, किसी से बातचीत करने की इच्छा न हुई। मन में आया कि इस स्थान को छोड़कर कहीं दूर चली जाए। यह असंभव था। कुमुद उस स्थान को छोड़कर अपनी कोठरी में चली गई और भीतर से उसने किबाड़ बंद कर लिए। गोमती ने समझ लिया कि उसके लिए भीतर जाने के विषय में निमंत्रण नहीं है।
गोमती अकेली मंदिर की ड्योढ़ी में बैठ गई। दलीपनगर और उसके राजा से घनिष्ठ संबंध रखनेवाली घटनाओं की कल्पनाएँ मन में उठने लगीं। उन सब कल्पनाओं के ऊपर रह-रहकर उठनेवाली अभिलाषा यह थी कि नरपति राजा से यह न कहे कि गोमती विराटा के बीहड़ में अकेली पड़ी है, उसे लिवा लाओ। इसी समय रामदयाल मंदिर में आया।
उसे देखकर गोमती को हर्ष हुआ। मुसकराती हुई उसके पास उठ आई। आतुरता और
उत्सुकता के साथ उसने कुशल-मंगल का प्रश्न किया।
इस स्वागत से रामदयाल के मन के भीतर ही भीतर एक स्फूर्ति-सी एक उमंग-सी
उमड़ी। उसने कहा, 'मैं तो आपके दर्शन मात्र से सुखी हो जाता हूँ। आज यहाँ कुछ
सन्नाटा-सा जान पड़ता है।'
'नरपति काका महाराज के पास दलीपनगर अभी-अभी गए हैं।' गोमती बोली, 'कालपी का
नवाब इस नगर और मंदिर को विध्वंस करना चाहता है। उसके दमन के लिए रण-निमंत्रण
देने के लिए वह गए हैं। तम्हें महाराज कब से नहीं मिले?'
'मुझे तो हाल ही में दर्शन हुए थे।' 'कुछ कहते थे?'
'बहुत कुछ। यहाँ कोई पास में नहीं है?' 'नहीं है। बाहर चट्टान पर चलो। वहाँ
बिलकुल एकांत है।'
दोनों मंदिर के बाहर एक चट्टान पर चले गए। बड़े-बड़े ढोंके एक दूसरे से भिड़े
हुए धारा की ओर ढले चले गए थे। वहाँ जाकर वे एक विशाल चट्टान से अटककर टैंग
गए थे। एक बड़े ढोंके पर गोमती बैठ गई। पेड़ की छाया थी। वहाँ रामदयाल
खड़े-खड़े बातचीत करने लगा। बोला, 'रण की बड़ी भयंकर तैयारी हो रही है। नवाब
और उसके मित्रों से वह लोहा बजेगा, जैसा बहुत दिनों से न बजा होगा। विराटा
बहुत शीघ्र बड़ी प्रचंड आँधी में पड़नेवाला है और कारण बड़ा साधारण-सा है।'
'साधारण-सा?' गोमती ने आश्चर्य प्रकट किया, 'तुम्हारा क्या अभिप्राय है?'
रामदयाल आवाज को धीमा करके बोला, 'अलीमर्दान मंदिर विध्वंस नहीं करना चाहता, कुंजरसिंह की सहायता करना चाहता है और महाराज यहीं आकर कुंजरसिंह को धर दबाना चाहते हैं।'
'कुंजरसिंह की सहायता? यदि ऐसा है, तो मंदिर को अपवित्र करने का संकल्प उसने क्यों किया है?'
'मैंने दलीपनगर में बड़े विश्वस्त-सूत्र से सुना है कि वह कुमुद के विषय में
कुछ विशेष दुष्प्रवृत्ति रखता है। और उसे कुछ प्रयोजन नहीं। यदि वह
मंदिर-भंजक होता,
तो पालर का मंदिर कदापि न छोड़ता।'
'यह काम कम निंदनीय है? मैं तो कुमुद की रक्षा के लिए तलवार हाथ में लेकर अलीमर्दान से लड़ सकती हूँ। क्या महाराज इसे छोटा कारण समझते हैं? क्या वह नहीं जानते कि कुमुद लोकपूज्य है और देवी का अवतार है।'
रामदयाल ने अदम्य दृढ़ता के साथ कहा, 'लोकपूज्य तो वह जान पड़ती है। मैंने भी अपने स्वामी की हित-कामना से उस दिन श्रद्धांजलि चढ़ा दी थी। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि महाराज उसे देवी का अवतार नहीं मानते। वह उसकी रक्षा एक हिंदूस्त्री के नाते करना चाहते हैं और उनका अभिप्राय कुंजरसिंह को सदा के लिए ठीक कर देना है। वह यहाँ आया करते हैं, ठहरते हैं, आश्रय पाते हैं और न जाने क्या-क्या नहीं होता है! परंतु आपको सब हाल मालूम नहीं है।'
गोमती इधर-उधर देखकर बोली, और क्या हाल है रामदयाल?'
उसने उत्तर दिया, 'वैसे आप कभी मेरा विश्वास न करेंगी। कोई बात कहूँगा तो आप
रुष्ट हो जाएँगी, कदाचित् मुझे दंड देने का निश्चय करें। दो-एक दिन में आप
स्वयं देख लेना। क्या आपने कभी कुंजरसिंह को कुमुद के साथ अकेले में
वार्तालाप करते देखा है? मैं अधिक इस समय कुछ नहीं कहना चाहता।'
गोमती बेतवा की बहती हुई धार और उस पार के जंगल की नीलिमा की ओर देखने लगी। थोड़ी देर सोचने के बाद बोली, 'मैंने बात करते तो देखा है; परंतु विशेष लक्ष्य नहीं किया है। मुझे लक्ष्य करके करना ही क्या? कोई अवसर कभी अपने आप सामने आ जाएगा, तो देखूँगी।'
'आपने क्या इस बात को नहीं परखा?' रामदयाल ने प्रश्न किया, 'कुमुद किसी न
किसी रूप में हर समय कुंजरसिंह का पक्ष किया करती है। यह बात बिना किसी कारण
के है?'
गोमती उत्तर न देते हुए बोली, 'आज जब नरपति काकाजू ने महाराज को यहाँ बुलाने की बात कही, तो उन्होंने विरोध किया। कम-से-कम वह यह नहीं चाहती थीं कि महाराज यहाँ आवें।'
'मेरी एक प्रार्थना है।' रामदयाल ने हाथ जोड़कर बहुत अनुनय के साथ कहा।
गोमती उस अनुनय के ढंग से तुरंत आकृष्ट होकर बोली, 'क्या है, रामदयाल? तुम
इतने विह्वल क्यों हो रहे हो?'
रामदयाल ने काँपते हुए स्वर में उत्तर दिया, 'सरकार अब यहाँ न रहें।' 'क्यों?' गोमती ने पूछा।
रामदयाल ने कहा, 'कुंजरसिंह यहाँ आकर अड्डा बनावेंगे। वह नवाब को न्योता देकर आग बरसावेंगे। महाराज का आना अवश्य होगा। कुंजरसिंह और नवाब से उनकी लड़ाई होगी। आपका यहाँ क्या होगा?'
'परंतु मैं दलीपनगर नहीं जा सकती।' 'मैं दलीपनगर जाने के लिए नहीं कहता, और
भी तो बहुत से आश्रय-स्थान हैं।' 'कहाँ?'
'बहुत-से स्थान हैं। जब शांति स्थापित हो जाए, तब जहाँ इच्छा हो, वहाँ आपको
पहुँचाया जा सकता है।'
'महाराज क्या कहेंगे?' 'कुछ नहीं। वह या तो स्वयं आएँगे या अपने सेनापति अथवा
मंत्री को सेवा में भेजेंगे . और मैं भी तो उन्हीं का कृपापात्र हूँ।' 'कुमुद
को छोड़कर चलना पड़ेगा?' 'आपको उनके विषय में अपना विचार शीघ्र बदलना पड़ेगा।
मैं इस समय कुछ न कहूँगा, आप खुद देख लेना। केवल इतना बतलाए देता हूँ कि जहाँ
कुंजरसिंह जाएंगे वहीं कुमुद जाएगी।'
· गोमती ने त्योरी बदली। परंतु बोली कोमल कंठ से, ऐसी अभद्र और अनहोनी बात मत
कहो।'
रामदयाल ने बड़ी शिष्टता के साथ कहा, 'नहीं, मैं तो कुछ भी नहीं कहता। कुछ भी
नहीं कहा। कुछ नहीं कहूँगा।'
गोमती मुसकराकर बोली, 'नहीं-नहीं, यह नहीं चाहती कि तुम जिस बात को ठीक तरह से जानते हो और उसकी सत्यता में संदेह करने के लिए कोई जगह न हो, उसे छिपा डालो। परंतु तुम्हें यह अच्छी तरह ज्ञान रखना चाहिए कि किसके विषय में क्या कह रहे हो।'
रामदयाल ने आँखें नीची करके कहा, 'मुझे किसी के विषय में कुछ कहा-सुनी नहीं
करनी है। मेरे तन-मन के स्वामी उधर महाराज हैं और इधर आप। मुझे और किसी से
वास्ता ही क्या है। आप या महाराज इससे तो मुझे वर्जित नहीं कर सकते और न
वंचित रख सकते हैं।'
जैसे कोई हवा में घूमते हुए बोले, उसी तरह गोमती ने कहा, 'अभी तो यहाँ से कहीं दूसरे ठौर जाने की आवश्यकता नहीं मालूम होती रामदयाल, परंतु स्थान का प्रबंध अवश्य किए रहो। अवसर आने पर चलेंगे।'
: ६५:
नरपतिसिंह यथासमय दलीपनगर पहुँच गया। विराटा के राजा की चिट्ठी जनार्दन शर्मा के हाथ में रख दी गई। नवाब के पड़ोस में ही दलीपनगर के राजा की सहायता चाहनेवाले व्यक्ति के पत्र पर उसे उत्साह मिला। उसके सोचा-यदि सबदलसिंह साधारण-सा ही सरदार है, तो भी अपना कुछ नहीं बिगड़ता, लाभ है। .
नरपतिसिंह से उसने पूछा, 'आपकी बेटी आनंदपूर्वक है?'
उत्तर मिला, 'दुर्गा की दया से सब आनंद-ही-आनंद है। यह जो विघ्न का बादल उठ रहा है, उसे टालकर आप विराटा को बिलकुल निरापद कर दें।'
जनार्दन ने कहा, 'सो तो होगा ही, परंतु मैं कहता हूँ कि आप लोग पालर ही में क्यों नहीं आ जाते? पालर ओरछा राज्य में है और हमारे बाहु के पास है।'
'यह समय बड़ा संकटमय है।' नरपति बोला, 'केवल बीहड़ स्थान कुछ सुरक्षित समझा जा सकता है। जब युद्ध समाप्त हो जाएगा, तब निस्संदेह हम लोग पालर लौटने के विषय में सोच सकते हैं।'
'परंतु विराटा तो कदाचित् खून-खराबी का केंद्र-स्थान हो जाएगा। वह पालर से अधिक सुरक्षित तो नहीं है।'
'जो कुछ भी हो, हम लोग अभी उस स्थान को नहीं छोड़ना चाहते। वहाँ हमारे भाई-बंद काफी संख्या में हैं। जब वहाँ निर्वाह न दिखलाई पड़ेगा, तब या तो जहाँ आप बतलाते हैं, वहीं चले जाएंगे या किसी और स्थान को ढूँढ़ लेंगे।'
जनार्दन ने पूछा, 'कुंजरसिंह विराटा कब से नहीं आए?'
'कुंजरसिंह?' नरपति ने आश्चर्य प्रकट किया, 'कुंजरसिंह वहाँ आकर क्या करेंगे? अन्य लोग आए-गए हैं। कुंजरसिंह को मैंने वहाँ कभी नहीं देखा।'
'और कौन लोग आए-गए हैं?' जनार्दन ने प्रश्न किया।
उसने उत्तर दिया, 'बहुत लोग आए-गए हैं, किस-किसका नाम गिनाऊँ।'
जनार्दन ने कहा, 'उदाहरण के लिए कुंजरसिंह का सेनापति तथा रामदयाल इत्यादि।'
नरपति चौंका, बोला, 'आपको कैसे मालूम?'
जनार्दन ने अभिमान के साथ कहा, 'यह मत पूछो। महाराज देवीसिंह आँखें मूंदकर
राज्य नहीं करते।'
'यह ठीक है।' नरपति बोला, परंतु देवी के मंदिर में किसी के आने की रोक-टोक नहीं है। यदि किसी ने आपको कुछ और बनाकर बतलाया है तो झूठ है।'
जनार्दन ने कहा, 'आपकी चिट्ठी महाराज की सेवा में थोड़ी देर में पेश कर दी जाएगी। पालर की घटना के कारण ही हम लोग कालपी के नवाब के विरुद्ध हैं और वह विराटा के मंदिर को विध्वंस करने के लिए फिर कुछ प्रयत्न करनेवाला है। परंतु हमारे लक्ष्य कुंजरसिंह अधिक हैं। उन्होंने तमाम बखेड़ा खड़ा कर रखा है। रानियाँ भी तो उनका साथ देंगी? आजकल रामनगर में हैं न?'
नरपति को यह बात न मालूम थी। आश्चर्य के साथ बोला, 'यह सब हम क्या जानें।'
जनार्दन ने एक क्षण विचार करके कहा, 'हमारी सेना आप लोगों की सहायता के लिए
आएगी, आप अपने राजा को आश्वासन दे दें। हम महाराज की मुहर-लगी चिट्ठी आपको
देंगे। कब तक हमारी सेना आपके यहाँ पहुँचेगी, यह कुछ समय पश्चात् मालूम हो
जाएगा।'
नरपति जरा आतुरता के साथ बोला, 'मैं महाराज से स्वयं मिलकर कुछ निवेदन करना
चाहता हूँ।'
'किसलिए?' जनार्दन ने आँखें गड़ाकर पूछा। नरपति ने उत्तर दिया, 'वह उनके निज
के सुख से संबंध रखनेवाली बात है।'
: ६६:
जनार्दन की इच्छा न थी कि नरपति उसे अपनी पूरी बात सुनाए बिना राजा से मिल ले। परंतु नरपति के हठ के सामने जनार्दन की आनाकानी न चली। राजा से साक्षात्कार हुआ। राजा को आश्चर्य था कि मेरे निज के सुख से संबंध रखनेवाली ऐसी कौन-सी कथा कहेगा।
अकेले में बातचीत हुई।
नरपति ने कहा, 'उस दिन पालर में प्रलय हो गया होता, यदि महाराज ने रक्षा न की
होती।'
'किस दिन?' राजा ने विशेष रुचि प्रकट न करते हुए पूछा।
नरपति बोला, 'उस दिन, जब पालर की लहरों पर देवी की मौज लहरा रही थी और
मुसलमान लोग उन लहरों को छेड़ना चाहते थे।'
राजा जरा मुसकराकर बोले, 'मैं पालर के निकट कई लड़ाइयाँ लड़ चुका हूँ, इसलिए
स्मरण नहीं आता कि आप किस विशेष युद्ध की बात कहते हैं।'
नरपति ने कहा, 'पालर में देवी ने अवतार लिया है।'
'यह मैंने सुना है।'
'वह मेरे ही घर में हुआ है।'
'पं० जनार्दन शर्मा ने बतलाया था। मैं पहले से भी जानता हूँ।'
'जय हो महाराज! उसी की रक्षा में महाराज ने उस दिन अपना उत्सर्ग तक कर दिया था।'
राजा ने जरा अरुचि के साथ कहा, 'आप जो बात कहना चाहते हों, स्पष्ट कहिए।'
नरपति ने हाथ बाँधकर कहा, 'उस दिन, जिस दिन पालर में बारात आई थी; उस दिन, जिस दिन स्वर्गवासी महाराज को देवी की रक्षा के लिए अपनी रोग-शय्या छोड़नी पड़ी थी; उस दिन, जब बड़े गाँव से आकर श्रीमान् ने हम सब लोगों को सनाथ किया था।'
राजा मुसकराए। बोले, 'मुझे याद है वह दिन। मैं आपकी बस्ती में घायल होकर
मार्ग में अचेत गिर पड़ा था। बहुत समय पश्चात् होश आया था।'
राजा यह कहकर नरपति के मन की बात जानने के लिए उसकी आँखों में अपनी दृष्टि
गड़ाने लगे। नरपति उत्साहित होकर बोला, 'यदि महाराज उस दिन घायल न हुए होते,
तो उसी दिन एक क्षत्रिय के द्वार के बंदनवारों पर केशरछिटक गई होती और वह
क्षत्रिय-कन्या आज दलीपनगर की महारानी हुई होती।'
राजा को याद आ गई। परंतु आश्चर्य प्रकट करके बोले, 'वह तो एक ऐसी छोटी-सी घटना थी, कुछ ऐसी साधारण-सी बात रही होगी कि अच्छी तरह याद नहीं आती। बहुत दिन हो गए हैं। तुम्हारा प्रयोजन इन सब बातों के कहने का क्या है, वह स्पष्ट प्रकार से कह क्यों नहीं डालते?'
नरपति ने गोमती के पिता का नाम लेते हुए कहा, 'उनके घर महाराज की बारात आई
थी। उस कन्या के हाथ पीले होने में कोई विलंब नहीं दिखलाई पड़ता था। ठीक
उस घर के सामने महाराज अचेत हो गए थे। हम लोग औषधोपचार की चिंता में थे और
चाहते थे कि स्वस्थ हो जाने पर पाणिग्रहण हो जाए। परंतु सवारी स्वर्गवासी
महाराज के साथ दलीपनगर चली गई। उसके उपरांत घटनाओं के संयोग से फिर इस चर्चा
का समय ही न आया। वह क्षत्रिय-कन्या इस समय विराटा के दुर्गा के मंदिर में हम
'लोगों के साथ है। महाराज शीघ्र चलकर उसे महलों में लिवालाएँ और विवाह की
रीति भी पूरी कर लें।'
'आजकल, राजा ने जरा उत्तेजित होकर कहा, 'मैं युद्ध और प्रजा की रक्षा के
साधनों की चिंता में इतना अधिक उलझा रहता हूँ कि ऐसी मामूली बातों का स्मरण
रखना या स्मरण करना बड़ा कठिन है।'
नरपति आग्रहपूर्वक बोला, 'मैं अन्नदाता को स्मरण कराने आया हूँ।'
राजा ने धीमे स्वर में और जरा लज्जा के साथ पूछा, 'आपको किसने भेजा है?'
'विराटा के राजा ने।' नरपति ने नम्रता के भीतर छिपे हुए अभिमान के साथ कहा।
राजाने पछा, 'यह बात जो तुम अभी-अभी कह रहे थे, क्या इसे भी विराटा के राजा
साहब ने कहलवाया है?'
नरपति बोला, 'नहीं, यह तो मैं स्वयं कह रहा था, महाराज! वाग्दत्ता क्षत्रिय कन्या कितने दिनों इस तरह जंगलों-पहाड़ों में पड़ी रहेगी?'
'वाग्दान किसने किया था?' राजा ने पूछा।
नरपति बिना संकोच के बोला, 'यह तो महाराज जानें, परंतु इतना मैं जानता हूँ कि वह महाराज की रानी है। केवल भाँवर की कसर है। यदि उस दिन युद्ध न हुआ होता, तो विवाह को कोई रोक नहीं सकता था और आज वह महलों में होती। क्या महाराज को कुछ भी स्मरण नहीं है? शायद उस दिन के आघातों के कारण स्मृति-पटल से यह बात हट गई है?'
राजा हिल-सा उठा, जैसे किसी ने काँटा चुभा दिया हो। सोचने लगा, एक क्षण बाद बोला. 'मझे इन बातों के सोचने का अवकाश ही नहीं रहा है। सिपाही आदमी हूँ। सिवा रण और तलवार के और किसी बात का बहुत दिनों कोई ध्यान नहीं रह सकता है और जिस संबंध के विषय में तुम कह रहे हो, वह राजाओं का राजाओं के साथ होता है, और लोगों के संबंध करने की भी मनाही नहीं। यदि कोई पवित्र चरित्र कन्या जो शुद्ध कुल में उत्पन्न हुई हो, माता-पिता दरिद्र क्यों न रहे हों, हमारे महलों में आना चाहे, तो रुकावट न डाली जाएगी। परंतु इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि ऐसी-वैसी औरतें हमारे यहाँ नहीं धसने दी जातीं।'
नरपति कुछ कहना चाहता था, परंतु सन्न-सा रह गया, जैसे किसी ने गला पकड़ लिया
हो।
राजा ने कहा, 'मझे याद पड़ता है कि एक ठाकुर उस नाम के पालर में रहते थे। उनकी कन्या का संबंध मेरे साथ स्थिर हुआ था, परंतु इसका क्या प्रमाण है कि यह वही कन्या है?'
नरपति के सिर से एक बोझ-सा हट गया। प्रमाण प्रस्तुत करने के उत्साह और आग्रह
से बोला, 'मैं सौगंध के साथ कह सकता हूँ, मेरे सामने वह उत्पन्न हुई थी।
अठारह वर्ष से उसे खाते-खेलते देखा है। ऐसी रूपवती कन्या बहुत कम देखी-सुनी
गई है। महाराज ने भी तो विवाह-संबंध कछ देखकर ही किया होगा।'
राजा मानो लाज में डूब गया। परंतु एक क्षण में संभलकर दृढ़ता के साथ बोला, 'मैं भोग-विलास के पक्ष में नहीं हूँ। यह समय दलीपनगर के लिए बड़ा कठिन जान पड़ता है। इस समय निरंतर युद्ध करने की इच्छा मन में है, उसी में हम सबका त्राण है। जब अवकाश का समय आवेगा, तब इन बातों की ओर ध्यान दूंगा।'
फिर बेफिक्री की सच्ची मुसकराहट के साथ कहा, 'अर्थात् यदि लड़ते-लड़ते उसके पहले ही किसी समय प्राण समाप्त न हो गया, तो।'
इस मुसकराहट के भीतर किसी भयंकर दृढ़ता की झलक थी। नरपति उससे सहम गया। 'मेरी यह प्रार्थना नहीं है कि ज्यों ही अवकाश मिले, महलों की शोभा बढ़ाई जाए।' फिर किसी भाव से प्रेरित होकर कहने लगा, 'इस समय विराटा पर संकट है। न मालूम कौन कहाँ भटकता फिरे, इसलिए अन्नदाता, मेरे इस कहने की ढिठाई को क्षमा करें। स्वयं न जा सकें, तो अपने किसी प्रधान कर्मचारी को कुछ सेना के साथ भेज दें। डोले का प्रबंध विराटा में कर दिया जाएगा। यहाँ शीघ्र बुलवा लिया जाए।'
'क्या उस लड़की ने बहुत आग्रह के साथ यह बात कहलवाई है?'राजा ने सतर्क के स्वर में पूछा।
नरपति का सारा शरीर उत्तेजित हो गया। सँधे हुए गले से बोला, 'न महाराज! उसने
तो निषेध किया था। मैंने ही अपनी ओर से प्रार्थना की है। वह बड़ी अभिमानी
क्षत्रिय-बालिका है।'
राजा ने सांत्वना-सी देते हुए कहा, 'नहीं-नहीं। मैं कोई रोक-टोक नहीं करता
है। यदि उसकी इच्छा हो, तो वह चली आवे, तुम भेज दो। परंतु यह समय भाँवर के
लिए उपयुक्त नहीं है।'
नरपति ने सिर नीचा कर लिया।
राजा ने कहा, 'अथवा अवकाश मिलने पर, अर्थात् जब युद्धों से निबट जाऊंगा और
कहीं कोई विघ्न-बाधा न रहेगी, तब मैं ही आकर देख लूँगा और जो कुछ उचित होगा,
अवश्य करूंगा।'
इसके बाद विराटा से संबंध रखनेवाली राजनीतिक चर्चा पर बातचीत होने लगी।
राजा ने अंत में नवाब के खिलाफ विराटा को सहायता देने और सेना लेकर आने का
वचन देकर नरपति को बिदा किया।
नरपति दलीपनगर से लौट आया। विराटा के राजा को उसने यह संतोषजनक समाचार सुनाया
कि बहुत शीघ्र राजा देवीसिंह की सेना सहायता के लिए आएगी अर्थात् आवश्यकता
पड़ते ही।
परंतु जिस समय नरपति अपने घर-विराटा के द्वीपवाले मंदिर में-आया, चेहरे पर
उदासी थी।
रामदयाल उस समय वहाँ न था। कुमुद और गोमती थीं। मंदिर के दालान में बैठकर
नरपति ने कुमुद से कहा, 'मंदिर की रक्षा तो हो जाएगी।' कुमुद ने लापरवाही के
साथ कहा, 'इसमें मुझे कभी संदेह नहीं रहा है। दुर्गा रक्षा करेंगी।'
'राजा देवीसिंह ने भी वचन दिया है।' प्रतिवाद न करते हुए नरपति बोला। गोमती का मुख खिल उठा। गौरव के प्रकाश से आँखें चंचल हो उठीं। गोमती ने कुमुद से धीरे से कहा, 'तब यहाँ से कहीं और जाने की अटक न पड़ेगी।'
कुमुद निश्चित से भाव से बोलीं, 'अटक क्यों पड़ने लगी? और यदि पड़ी भी, तो यह नदी और अग्रवर्ती वन सब दुर्गा के हैं।'
गोमती को बुरा लगा, नरपति से सरलता के साथ पूछा, 'दलीपनगर में तो बड़ी भारी सेना होगी काकाजू?'
'हाँ है।' नरपति ने उत्तर दिया, 'बड़ा नगर, बड़े लोग और बड़ी बातें।'
गोमती आँख के एक कोने से देखने लगी। कुमुद ने कहा, 'राजा ने गोमती के विषय
में कुछ पूछा था?'
गोमती सिकुड़कर कुमुद के पीछे बैठ गई। नरपति ने उत्तर दिया, 'राजा ने नहीं पूछा था। मैंने स्वयं चर्चा उठाई थी।'
कुमुद ने कहा, 'आपको ज्यादा कहना पड़ा था या उन्हें सब बातों का तुरंत स्मरण
हो आया था?
नरपति ने कुछ उत्तर नहीं दिया। कुछ सोचने लगा। गोमती का हृदय धड़कने लगा।
कुमुद बोली, 'राज्य के कार्यों में उलझे रहने के कारण कदाचित् कुछ देर में
स्मरण हुआ होगा। राजा ने क्या कहलवा भेजा है?'
नरपति राजपूत के कर्तव्यों और कैंड़ों से अपरिचित था, उत्तर दिया, 'मुझे तो
क्रोध आ गया था। पराई जगह होने के कारण संकोचवश कुछ नहीं कह सका, परंतु कलेजा
राजा की बातों से धड़कने लगा था। वह सब जाने दो। इस समय तो हम लोगों को इतने
पर ही संतोष कर लेना चाहिए कि राजा इस स्थान की रक्षा करने के लिए एक-न-एक
दिन-और शीघ्र ही अवश्य आवेंगे।'
परंतु कुमुद ने पूरी बात को उघाड़ने का निश्चय कर लिया था, इसलिए बोली, 'क्या राजा होते ही वह यह भूल गए कि उस दिन पालर में उनकी बरात हुई थी, वंदनवार सजाए गए थे, स्त्रियों ने कलश रखे थे, मंडप बनाया गया था और गोमती के शरीर पर तेल चढ़ाया गया था? आपने क्या उन्हें स्मरण दिलाया?'
'मैंने इन सब बातों की याद दिलाई थी।' नरपति ने जवाब दिया, परंतु उन्होंने कोई ऐसी बात नहीं की, जिससे मन में उमंग उत्पन्न होती। वह तो सब कुछ भूल-से गए हैं।
गोमती पसीने में तर हो गई। सिर में चक्कर-सा आने लगा। 'उन्होंने क्या कहा था?' कुमुद ने पूछा। नरपति ने उत्तर दिया, 'राज-काज की उलझनों में स्मरण नहीं रह सकता। यदि वह आना चाहे और वही हो जिसके साथ पालर में संबंध होनेवाला था, तो कोई रोक-टोक न की जाएगी। मैं स्वयं न आ सकूँगा। सेना लेकर जब विराटा की रक्षा के लिए आऊँगा, तब जैसा कुछ उचित समझा जाएगा, करूँगा।'
नरपति के मन पर राजा की तत्संबंधी वार्ता सुनकर जो भाव अंकित हुआ, उसे उसने
अपने शब्दों में राजा की भाषा का रूप देकर प्रकट किया।
कुमुद बोली, 'वह इतनी जल्दी भूल गए! राजपद और राजमद क्या मनुष्य को सब कुछ
भूल जाने के लिए विवश कर देते हैं! जैसे क्षत्रिय वह हैं, उनसे कम कुलीन क्या
यह दीन क्षत्रिय-बालिका है?'
'वह तो कहते थे, नरपति ने तुरंत उत्तर दिया, 'कि राजाओं का संबंध राजाओं में
होता है।'
गोमती चीख उठी। चीख मारकर कुमुद से लिपट गई। नरपति ने देखा, पसीने में
डूब-सी गई और शायद अचेत हो गई है। पंखा ढूँढ़ने के लिए अपनी कोठरी में चला
गया।
कुमुद ने गोमती को धीरे से अपनी गोद की ओर खींचा। वह अचेत न थी, परंतु उसके
मन और शरीर को भारी कष्ट हो रहा था।
कुमुद का जी पिघल उठा। बोली, 'गोमती, इतनी-सी बात से ऐसी घबरा गई! इतनी अधीर मत होओ। न मालूम महाराज ने क्या कहा है और काकाजूने क्या समझा है। वह सेना लेकर थोड़े दिनों में यहाँ आ ही रहे हैं। यहाँ सब बात यथावत् प्रकट हो जाएगी। मुझे आशा है, राजा तुम्हें अपनाएँगे।'
गोमती कछ कहना चाहती थी परंतु उसका गला बिलकुल सूख गया था, इसलिए एक शब्द भी
मुँह से न निकला।
इतने में नरपति पंखा लेकर आ गया। कुमुद ने कहा, 'आप भोजन करें, मैं तब तक हवा
करूंगी।'
'न, यह न होगा।' नरपति बोला, 'देवी इस लड़की को पंखा झलेंगी! मैं झले देता
हूँ।' कुमुद ने कहा, 'अकेले में उससे कुछ कहना भी है।' पंखा वहीं रखकर नरपति
कोठरी में चला गया।
पंखा झलते हुए कुमुद बोली, 'शांति और धैर्य के साथ उनके ससैन्य आने की बाट
जोहनी ही पड़ेगी। वह मंदिर में अवश्य आवेंगे। मैं यहाँ पर रहूँ या कहीं चली
जाऊँ, तुम बनी रहना। वह तुम्हें यहाँ अवश्य मिलेंगे। निराश मत होओ।'
पंखे की हवा से शरीर की भड़क शांत हुई। कुमुद को पंखा झलते देखकर गोमती को
बोलने का विशेष प्रयत्न करना पड़ा।
सिसकते हुए धीरे से बोली, 'मुझे यहाँ छोड़कर कहीं न जा सकोगी। मेरे मन में अब और कोई विशेष इच्छा नहीं है। जब तक प्राण न जाएँ, तब तक चरणों में ही रखना।'
कुमुद की पूर्व रुखाई तो पहले ही चली गई थी, अब उसके मन में दया उमड़ आई। कहा, 'जब तक राजा तुम्हें स्वयं लेने नहीं आते, तब तक तुम्हें वहाँ अपने आप जाने के लिए कोई न कहेगा। परंतु तुम्हें यह न सोचना चाहिए कि उन्होंने किसी विशेष निठुराई के वश होकर इस तरह की बात कही है।'
गोमती चुप रही।
कुमुद एक क्षण सोचकर बोली, 'यदि हम लोगों को यहाँ से किसी दूसरे स्थान पर जाना पड़ा, तो तुम अवश्य हमारे साथ रहना। हमें आशा है, राजा ससैन्य आएँगे, परंतु यह आशा बिलकुल नहीं है कि उनके आने तक हम लोग यहाँ ठहरे रहेंगे। उनके आने की खबर मिलने के पहले नवाब अपनी सेना इस स्थान पर भेजने की चेष्टा करेगा। हम लोगों को शायद बहुत शीघ्र ही यह स्थान छोड़ना पड़ेगा।' गोमती ने साथ ही रहने का दृढ़ निश्चय प्रकट किया।
:६८:
दलीपनगर का राज्य उन दिनों भंवर में फंसा हुआ-सा जान पड़ता था। राजा देवीसिंह का अधिकार अवश्य हो गया था, परंतु उसकी सत्ता सभी ने नहीं मानी थी। कोई-कोई खुल्लम-खुल्ला विरोध कर देते थे, बहुतों के भीतर-भीतर प्रतिकूलता की लहरें उठ रही थीं। जनार्दन शर्मा, हकीम जी और लोचनसिंह-सदृश लोग नए राजा के दृढ़ पक्षपाती थे, परंतु अनेक प्रमुख लोग विपरीत भाव का प्रदर्शन न करते हुए भी कोई ऐसा काम नहीं कर रहे थे, जिससे स्पष्ट तौर पर यह विश्वास होता कि वे देवीसिंह के सहायक हैं। माल विभाग और सेना को देवीसिंह बहुत ध्यान के साथ सुधार रहे थे, परंतु वर्षों की बिगड़ी हुई संस्थाओं का ठिकाना लगाना कुछ विलंब का काम होता है।
उधर कुंजरसिंह बिगड़े-दिल सरदारों को अपनी ओर जुटाने में दत्तचित्त था। रानियों की ओर से भी परिश्रम जारी था। जो लोग देवीसिंह के विरुद्ध थे, वे यह जानते थे कि रानियों को कालपी के फौजदार की सहायता मिल रही है। उन्हें यह भी मालूम था कि यह सहायता कुंजरसिंह के लिए अप्राप्य है, परंतु वे लोग यह विश्वास करते थे कि नवाब कुंजरसिंह के साथ पुरुष होने के कारण मैत्री की संधि ज्यादा जल्दी करेगा। इसलिए उन्होंने सहायता का वचन तो रानियों को दे दिया, परंतु मन के भीतर कुंजरसिंह के लिए फाटक बिलकल बंद नहीं किए। यह कहा कि नवाब को आपके साथ होते देखकर हम लोग आपके साथ हो जाएँगे। नहीं नहीं की। वचन भी नहीं दिया।
कुंजरसिंह पर इसका बहुत कष्टदायक प्रभाव पड़ा। वह कुछ दिन आशा और निराशा के बीच में भटकता हुआ अंत में बहुत थोड़ी-सी आशा मन में लिए हुए विराटा लौट आया। उस समय नरपति को दलीपनगर से लौटे हुए दो-एक दिन हो चुके थे।
संध्या के पूर्व ही कुंजरसिंह मंदिर में आ गया। उसे देखते ही गोमती अपनी
कोठरी में चली गई। कुमुद ने देखा. कुंजर का चेहरा बहत उतरा हआ है।
धीरे-धीरे पास जाकर जरा गंभीर भाव से कुमुद ने कहा, 'आप थके-माँदे मालूम होते
हैं। क्या दूर से आ रहे हैं?'
'हाँ, दूर से आ रहा हूँ।' कुंजरसिंह ने थके हुए स्वर में जवाब दिया, आशा नहीं
कि अब की बार विराटा छोड़ने पर फिर कभी लौटकर आऊँगा।'
दुख का कोई प्रदर्शन न करके कुमुद ने सहज कोमल स्वर में कहा, 'जब तक आप यहाँ
हैं इस दालान में डेरा डालें।'
दालान में अपना सामान रखकर कुंजरसिंह बोला, 'सुनता हूँ कुछ दिनों में विराटा का यह गढ़ और मंदिर दलीपनगर के राजा देवीसिंह के शिविर बन जाएंगे।'
'उस दिन के लिए हम लोग कदाचित् यहाँ नहीं बने रहेंगे।' कुमुद ने धीरे से कहा।
कुंजर को नरपतिसिंह का ख्याल आया। पूछा, 'काकाजू कहाँ हैं?'
'किसी काम से उस पार गए हैं। आते ही होंगे। आपको नहीं मिले? आप तो गाँव में ही होकर आए हैं?' कुमुद ने उत्तर दिया।
कुंजरसिंह ने जरा उत्तेजित स्वर में कहा, 'अब यह गाँव देवीसिंह को अपने यहाँ
बुला रहा है। मैं और देवीसिंह एक स्थान पर नहीं रह सकते। इसलिए अलग होकर आया
हूँ। यदि गाँव में ही किसी से बतबढ़ाव हो पड़ता, तो यहाँ तक दर्शनों के
निमित्त न अ पाता।"
कुमुद ने पूछा, 'राजा देवीसिंह कालपी के नवाब का दमन करने के लिए इस ओर
आवेंगे, इसमें आपको क्या आक्षेप है?'
कुंजरसिंह ने उत्साह के साथ उत्तर दिया, 'यह मेरे बड़े सौभाग्य की बात है कि कम-से-कम आपके हृदय में तो मेरे लिए थोड़ी-सी सहानुभूति है। वैसे इस अपार संसार में मेरे कितने हितू हैं?'
कुमुद ने द्वार की ओर देखकर कहा, 'अब तक काकाजू नहीं आए। न जाने कहाँ देर लगा दी है।'
कुंजर ने इस मंतव्य के विषय में कुछ न कहकर अपनी ही चर्चा जारी रखी, कालपी का नवाब मेरा शत्रु है। मैं उसके विरुद्ध सदा खड्ग उठाए रहने को तैयार हूँ। परंतु मैं यह कैसे भूल सकता हूँ कि देवीसिंह अनधिकार चेष्टा से, अन्याय से; छल-कपट से मेरी गद्दी पर जा बैठा है? देवीसिंह का प्रतिकार मेरे लिए उतना ही आवश्यक है, जितना कालपी के नवाब का-'
बात काटकर कुमुद बोली, 'मैं जरा बाहर से देखती हूँ कि पिताजी आरहे हैं या
नहीं और उन्हें कितनी देर है। अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है, दूर तक का आदमी
दिखलाई पड़ सकता है।'
कुमुद बारीकी से गोमती की कोठरी की ओर निगाह दौड़ती हुई दरवाजे के बाहर हो
गई।
कुंजरसिंह भी पीछे-पीछे गया, परंतु उसने यह न देख पाया कि गोमती भी अपनी कोठरी छोड़कर चुपचाप पीछे-पीछे हो ली है।।
बाहर जाकर कुमुद ने देखा कि नरपति के लौट आने का कोई लक्षण नहीं। बाहर ही ठिठक गई। पूर्व की ओर के वन की रेखा को परखने लगी। इतने में कुंजरसिंह वहाँ आ गया। हाथ जोड़कर बोला, 'मैं देवीसिंह का विरोधी हूँ, इसमें यदि आपको कोई बात खटकती हो, तो आज से संपूर्ण विरुद्ध भाव को हृदय के भीतर से धोकर बहा सकता हूँ, परंतु यदि मैं आपको यह विश्वास दिला दूं कि कपट और अन्याय से देवीसिंह मेरे राज्य का अधिकारी हुआ है तब भी आप क्या उसका साथ देने की आज्ञा देंगी? यदि ऐसी अवस्था में भी अपना हक छोड़ देने का आदेश हो, तो वह आज्ञा भी शिरोधार्य होगी।'
कुमुद ने आग्रह के साथ कहा, 'हाथ मत जोड़िए। यह अच्छा नहीं मालूम होता। आप राजकुमार हैं।'
कुंजर अधिकतम आग्रह के साथ बोला, 'राजकुमार नहीं हूँ। कम-से-कम आपके समक्ष
मैं कुछ भी नहीं हूँ, केवल सेवक हूँ, भक्त हूँ।'
कुमुद ने कहा, 'जब तक काकाजू नहीं आते, चलिए, उस चट्टान पर बैठकर आपसे
लड़ाइयों की कुछ चर्चा सुनें। हम लोगों को यहाँ संसार का और कोई वृत्तांत
सुनने को नहीं मिलता। काकाजू हाल में दलीपनगर गए थे।' । परंतु अंतिम बात के
मुंह से निकलते ही कुमुद ने अपना होंठ काट लिया। वह इस बात को कहना नहीं
चाहती थी, न मालूम कैसे निकल पड़ी।
जिस चट्टान पर बैठने की कुमुद ने इच्छा प्रकट की थी, वह पास ही थी। कुंजर
उसके नीचे की ओरवाली ढाल पर जा बैठा और कुमुद उसकी टेक पर। दोनों की पीठ
मंदिर के द्वार की ओर थी।
कुंजर ने पूछा, 'काकाजू दलीपनगर किसलिए गए थे?'
'आपको तो मालूम ही होगा।' कुमुद ने उत्तर दिया,
'मेरी इच्छा न थी कि वह जाते, परंतु यहाँ के राजा ने उन्हें हठ करके भेजा। इस समय विराटा को सहायता की बड़ी आवश्यकता है।'
'इसमें हर्ज ही क्या हुआ? कुंजर ने कहा, 'विराटा इस समय संकट में है। मुझ सरीखे लोग यदि उसकी सहायता नहीं कर सकते, तो जो उसकी सहायता कर सकते हैं, उनके पास तो निमंत्रण जाएगा ही, परंतु यदि आपकी कृपा हुई, तो देवीसिंह के बिना मैं अकेला ही बहुत कुछ करके दिखलाऊँगा।'
कुमुद ने कोई उत्तर नहीं दिया। कुंजर बोला, 'आगामी युद्ध में, ऐसा जान पड़ता है, विराटा का राजा देवीसिंह का साथ देगा। ऐसी अवस्था में मेरा यहाँ आना अब असंभव होगा। क्या विराटा का राजा किसी प्रकार मेरी ओर हो सकता है?'
कुमुद के उत्तर देने से पहले तुरंत कुंजर ने कहा, 'यह असंभव है। सबदलसिंह जानते हैं कि मैं कालपी की सेना का मुकाबला करने में उनकी अच्छी सहायता नहीं कर सकता हूँ। वह क्यों मेरा साथ देने लगे? और फिर उन्होंने स्वयं देवीसिंह को बुलाया है।'
निःश्वास परित्याग कर कुंजरसिंह बोला, 'अब देवीसिंह के राज्य की अखंडता में
कोई संदेह नहीं, अर्थात् यदि वह कालपी के नवाब को पराजित कर सका।'
फिर तुरंत आतुरता के साथ उसने कुमुद के पैरों की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा, 'यदि
मैं इन चरणों की रक्षा में अपना सब कछ विसर्जन कर सक. इसी सामनेवाली धार में
इस भयंकर दह में यदि किसी दिन मुझे वह प्रयत्न करते हुए विलीन हो जाना पड़े,
तो यही समझेगा कि दलीपनगर का क्या सारे संसार का राज्य मिल गया। क्या मझे
इतने की-केवल इतने-भर की-आज्ञा मिल जाएगी? दलीपनगर का कोई भी राज्य करे,
संसार किसी के भी अधिकार में चला जाए, परंतु यदि मुझे इन चरणों में रहने दिया
जाए, तो मुझे सब कुछ मिल गया।'
कुमुद चुप थी। बेतवा के पूर्वी किनारे को जलराशि छूती हुई चली जा रही थी।
अस्ताचलगामी सूर्य की कोमल-सुवर्ण रश्मियाँ बेतवा की धार पर उछल-उछलकर हँस-सी
रही थीं। उस पार के वन-वृक्षों की चोटियों के सिरों ने दूरवर्ती पर्वत की
उपत्यका तक श्यामलता की एक समरस्थली-सी बना दी थी। उस संदर सनसान में
कुंजरसिंह के शब्द बज-से गए।
कुमुद ने कहा, 'हम लोगों का कुछ ठीक नहीं, कब तक यहाँ रहें, कब यहाँ से चले जाएँ और कहाँ जा रुकें।'
'इसमें मेरे लिए कोई बाधा नहीं।' कुंजरसिंह उमंग के साथ बोला, 'आप यहाँ नरहें, यह मेरी पहली प्रार्थना है। दूसरी प्रार्थना यह है कि आप जहाँ भी जाएं, मुझे साथ रहने की अनुमति दें। बुरा समय आ रहा है। यदि साथ में एक सैनिक रहेगा, तो हानि न होगी।'
कुमुद ने बहती हुई धार की ओर देखते हुए कहा,'दुर्गा के सेवकों को कभी कष्ट नहीं हो सकता। जब कभी मनुष्य को दुख होता है, अपने ही भ्रम के कारण होता है। यदि मन में भ्रम न रहे, तो उसे किसी का भय न रहे।'
'धर्म का यह ऊँचा तत्त्व किसे मान्य न होगा?' कुंजरसिंह ने कहा, 'फिर भी एक दिन दृढ़, अत्यंत दृढ़ भक्त की यह विनती तो स्वीकार करनी ही पड़ेगी।'
कुमुद चुप रही। कुंजरसिंह किसी भाव के प्रवाह में बहता हुआ-सा बोला, 'यदि
आपने निषेध किया, तो मैं आज्ञा का उल्लंघन करूँगा, यदि आपने अनुमति न दी तो
मैं अपने हठ पर अटल रहँगा-मैं छाया की तरह फिरूँगा। पक्षियों की तरह
मड़राऊँगा। चट्टानों की तली में, पेड़ों के नीचे, खोहों में, पानी पर,
किसी-न-किसी प्रकार बना रहँगा। आपको अकुटी-भंग का अवसर न दूँगा, परंतु निकट
बना रहूँगा। साथ रखूगा केवल अपना खड्ग। समय आने पर दुर्गा के चरणों में अपना
मस्तक अर्पण कर दूंगा।'
'राजकुमार!' काँपते हुए गले से कुमुद ने कहा।
'आज्ञा?'
पुलकित होकर कुंजर बोला। कुमुद ने उसी स्वर में कहा, 'आपको इतना बड़ा त्याग नहीं करना चाहिए।'
'कितना बड़ा? कौन-सा?'
कुंजर धारा-प्रवाह के साथ कहता चला गया, 'नवाब से लड़ना धर्म है। धर्म की रक्षा करना कर्तव्य है। कर्तव्यपालन करना धर्म है। आपकी आजा का पालन करना ही धर्म, कर्तव्य और सर्वस्व है। यदि इन चरणों की कृपा बनी रहे, तो मैं संसार-भर की एकत्र सामर्थ्य को तुच्छ तण के समान समझें, मुझे कुछ न मिले, संसार-भर मुझे तिरस्कृत, वहिष्कृत कर दे, परंतु यदि चरणों की कृपा बनी रहे, तो, मैं समझू कि देवीसिंह मेरा चाकर है, नवाब मेरा गुलाम है और संसार-भर मेरी प्रजा।
कुमुद ने मुसकराकर, परंतु दृढ़ता के साथ इस प्रवाह का निवारण करते हुए कहा, '