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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:६२:

'अभी दिल्ली दूर है।' एक पुरानी कहावत चली आती है; परंतु जनार्दन के प्रयत्न से हकीम आगा हैदर को दिल्ली की दूरी बहुत कम अखरी। वह खुशी-खुशी जल्दी लौट भी आया और उसे अपनी आशातीत सफलता पर गर्व था। उसने जनार्दन को दिल्ली के प्रधान मंत्री की चिट्ठी दी जिसके तीन-चौथाई से अधिक भाग में आदाब और अलकाबों की धूम थी और थोड़ी-सी जगह में लिखा था कि आप और कालपी का नवाब अलीमर्दान बादशाह की दो आँखें हैं। किसी को भी कष्ट होने से उन्हें दुख होगा; अलबत्ता इस समय नवाब अलीमर्दान की दिल्ली बहुत जरूरत है, इसलिए वह फौरन दिल्ली बुलाए जानेवाले हैं।

जनार्दन ने बड़े हर्ष के साथ यह चिट्ठी राजा देवीसिंह को सुनवाई। उन्हें कोई हर्षनहीं हुआ।

बोले, 'यह सब अपार पाखंड मुझे धोखे में नहीं डाल सकता। पहले मारे सो ठाकुर, पीछे मारे सो फिसड्डी, मैं तो यह जानता हूँ। बहुत होगा, तो दिल्लीवाले अपने नवाब की मदद कर देंगे, बस। परंतु मैं बंदेलखंड में वह आग सुलगाऊँगा, जो चंपत महाराज ने भी न सुलगाई होगी और फिर बहुत गिरती हालत में मराठों को तो बुलाया ही जा सकता

'मैं नाहक युद्ध करने के पक्ष में नहीं हूँ।' मुदित-हर्षित जनार्दन बोला, मराठे सेंत-मेंत सहायता किसी की नहीं करते। उन्हें बुलाइएगा तो वे यहाँ से कुछ-न-कुछ लेकर ही जाएँगे।'

'पंडितजी।' देवीसिंह ने उत्तेजित होकर कहा, 'मराठे अगर कुछ लेंगे, तो मैं उन्हें दे दूंगा, परंतु जीते-जी नवाबों और मूवेदारों को सिर नहीं झुकाऊँगा। क्या भूल गए कि अलीमर्दान विराटा के मंदिर को नष्ट करनेवाला है।'

'नहीं महाराज, मैं नहीं भूला हूँ।' जनार्दन बोला, परंतु मेरा एक निवेदन है।' 'कहिए।' राजा ने कहा।
जनार्दन बोला, 'थोड़े दिन युद्ध स्थगित रखिए। यदि नवाब दिल्ली चला गया, तो ठीक है और यदि न गया, तो रणभेरी बजवा दीजिए।'
राजा बोले, 'मैं ठहरा हूँ; युद्ध न करूँगा, परंतु तैयारी में कोई कसर नहीं लगाऊँगा। मेरी इच्छा है कि बैरी के घर धावा करूँ। उसे यहाँ आने देना और पीछे सँभाल करना बुरी नीति होगी। मैं लोचनसिंह दाऊजू को सिंहगढ़ से बुलाकर ऐसे स्थान पर भेजना चाहता हूँ, जहाँ से बैरी के घर में घुसकर छापा डाल सकें-'

जनार्दन ने विरोध की इच्छा रखते हए भी प्रतिवाद नहीं किया। केवल यह कहा, 'सिंहगढ़ बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है, वहाँ किसे भेजिएगा?'
'और सरदार हैं, जो अपने जौहर दिखलाने की आकांक्षा रखते हैं।' राजा बोला, 'अब की बार आपकी भी रण-कुशलता की परीक्षा ली जाएगी।'

जनार्दन ने सच्चे हर्ष के साथ कहा, 'मैं दयावंत, लड़ना तो नहीं जानता, परंतु लड़ाई से भागना भी नहीं जानता।'

राजा बोला, 'आप दलीपनगर को अपने किसी विश्वसनीय सेवक या मित्र की निगरानी में छोड़ देना-अब की बार हम सब लोग अपने समग्र बल से इस धर्मद्रोही को ठीक कर दें।'

कृतज्ञतासूचक स्वर में जनार्दन बोला, 'मेरा शरीर यदि अन्नदाता की सेवा में नष्ट हो जाए, तो इससे बढ़कर और किसी बात में मुझे सुख नहीं होगा।'फिर राजा से पूछा, 'यदि आज्ञा हो, तो मैं स्वयं विराटा की ओर वास्तविक स्थिति की खोज कर आऊँ? बहुत शीघ्र लौटकर आ जाऊँगा। जासूस लोग बात का बिलकुल ठीक-ठीक पता नहीं लगा पा रहे हैं।

'आपको यदि किसी ने पहचानकर पकड़ लिया तो?' राजा ने उत्तर दिया, 'तो मैं यह समझेंगा की दलीपनगर की आधी से अधिक हार हो गई और मेरा दायाँ हाथ टूट गया।'

'और अन्नदाता।' जनार्दन बोला, 'संसार में दलीपनगर के नरेश के लिए लोग यह भी कहेंगे कि न मालूम उनके पास अभी कितने और ऐसे स्वामिधर्मी आदमी होंगे। इस प्रच्छन्न आत्म-श्लाघा पर जनार्दन जरा लज्जित हुआ।

परंतु राजा ने उसे कुछ और बोलने देने के पूर्व ही कहा, 'मैं तुम्हारी इच्छा का अवरोध न करूंगा।'
जनार्दन बोला, 'महाराज, यदि मैं अपने इस नए काम में सफल हुआ तो भविष्य में मेरे जासूम बहुत अच्छा काम करेंगे।'

जिस दिन से कालेखाँ विराटा से गया, वहाँ के वातावरण में सन्नाटा-सा छा गया। एक भ्रांति-सी फैली हुई थी, जिसके विषय में खुलकर चर्चा करने में भी लोगों का मन नहीं जमता था। आनेवाले संकट का साफ रूप बहत कम लोगों की समझ में आ रहा था, परंतु यह स्पष्ट था कि विराटा निरापद स्थान नहीं है। खतरे के समय विराटा निवासियों का ग्राम त्यागकर उस पार जंगल और भरकों में महीनों छिपे रहना कोई असाधारण स्थिति न थी। परंतु इस समय तक विपद् के ठीक-ठीक रूप की कल्पना का आभास न मिला था, इसलिए घबराहट थी।

नरपतिसिंह को उसका यथासंभव यथावत् रूप बतलाया गया था। उसे देवी का भरोसा था, परंतु वह बाहर के भी किसी आश्रय के लिए उद्योग करने की जी में ठान चुका था।

कुमुद से उसने ध्वनि में और अस्पष्टताओं के आवरण में ढककर बात कही। बोला, 'दुर्गा ने ही पालर की रक्षा की थी। यहाँ पर भी वह रक्षा करेंगी। मैं एक दिन के लिए दलीपनगर जाऊँगा।' कुमुद से और कुछ न कहकर वह मूर्ति के सामने प्रार्थना करने लगा।

स्पष्ट तौर पर बतलाए बिना भी कुमुद ने बात समझ ली। गोमती ने मंदिर के अन्य आने-जानेवालों से, जो विराटा में रहते थे, पूछा।

उन आने-जानेवालों को ठीक-ठीक कुछ नहीं मालूम था। एक बोला, 'राजा देवीसिंह यहाँ आकर युद्ध करनेवाले हैं, उधर अलीमर्दान की तोपें हमारी गढ़ी पर गोले बरसाएंगी।'

सबदलसिंह ने अपने चुने हुए भाई-बंदों को छोड़कर ठीक बात किसी को नहीं बताई थी। इस कारण गोलमाल फैला हुआ था। इस विषय को लेकर गोमती और कुमुद में बातचीत होने लगी। नरपतिसिंह जरा फासले पर प्रार्थना कर रहा था।

कुमुद ने कहा, 'विपद् में धीरज रखना चाहिए। दुर्गाजी का भरोसा सबसे बड़ा बल है। दूसरे आश्रय छूछे हैं।
गोमती ने पूछा, 'अलीमर्दान यहीं से क्यों युद्ध करेगा?' "उसकी मति फिर गई है, वह बावला है। वह मंदिर के ऊपर उत्पात करना चाहता है, 'तभी दलीपनगर के महाराज यहीं आकर युद्ध करना चाहते हैं।'

'तुम्हें कैसे मालूम?'

'मैंने एक गाँववाले से सुना है।'
'यह गलत है।'

गोमती ने हाथ जोड़कर कहा, 'मेरी प्रार्थना स्वीकार कीजिए, ठीक बात क्या है, मैं जानना चाहती हूँ। जो कुछ मुझसे बनेगा, मैं भी करूंगी।'
कुमुद ने आकाश की ओर नेत्र करके उत्तर दिया, 'एक बादल उठनेवाला है। मंदिर के ऊपर उत्पल वर्षा होगी।'
'परंतु उसका कुछ बिगड़ नहीं सकेगा। देवी का सार्वभौम राज्य है।'

'यह मैं क्या कह सकती हूँ।' कुमुद ने उत्तर दिया। फिर एक क्षण ठहरकर बोली, 'वह शीघ्र ही अपने ऊपर दुर्गा के क्रोध को बुलावेगा।'

'और महाराज यहाँ आकर युद्ध करेंगे? वह बड़े धर्मपरायण और दुर्गा के भक्त हैं।'

'करें, परंतु मैं यह नहीं चाहती। इसमें अनर्थ होगा, अनिष्ट होगा।'

गोमती घबराकर बोली, 'सो क्या? धर्म की रक्षा करने में अनर्थ और अनिष्ट कैसा?'

कुमुद ने कहा, 'मैं यहाँ खून-खराबी नहीं देखना चाहती। बेतवा का शद्ध सलिल देखो, कैसी शुभ्र धारा है। दोनों ओर कैसा हरा-भरा जंगल है। चारों ओर कैसा आनंदमय सुनसान है। कैसी एकांत शांति है। मनोहर एकांतता की गोद में मुसकराते हुए शिशु जैसा यह मंदिर है, उसके ऊपर रक्त-साव! कल्पना करने से कलेजा काँपता है।'
कष्ट की इस कल्पना से गोमती का एक रोयाँ भी न काँपा। अविचलित भाव से बोली, 'दुर्गा अपने भक्तों के हृदय में बल और उल्लास भरें। इस मनोहर स्थान की अवश्य रक्षा होगी। यदि महाराज आ गए तो रक्तपात कम होगा, यदि न आए, तो न जाने कितने लोग भेड़-बकरी की तरह यों ही काट डाले जाएंगे।'

इतने में नरपतिसिंह प्रार्थना करके उन लड़कियों के पास आ पहुँचा। बोला, 'इस समय देवी के भक्तों में सबसे अधिक प्रबलराजा देवीसिंह जान पड़ते हैं। उन्हें दुर्गा का आदेश सुनाने के लिए जा रहा हूँ। अब की बार उन्हें अपने सर्वस्व का बलिदान करके दुष्टों का दमन करना होगा।'

'यह आपसे किसने कहा कि आप राजा देवीसिंह के पास इस याचना के लिए जाएँ?' कुमुद ने सिर ऊँचा करके प्रश्न किया।
नरपतिसिंह के उत्तर देने के पूर्व ही गोमती बोली, 'न तो इसमें किसी के कहने-सुनने की कोई बात है और न यह याचना है। यह दुर्गा की आज्ञा है।'


'नहीं है।' कुमुद ने गंभीर होकर कहा, 'देवी की यह आज्ञा नहीं है। देवीसिंह इसके अधिकारी नहीं हैं। वह यदि रक्षा करने आएगा, तो निश्चय जानो हानि होगी, लाभ न होगा।'

गोमती दृढ़ता के साथ बोली, 'इसमें देवी का अनिष्ट नहीं हो सकता। राजा का अमंगल हो, तो हो। परंतु क्षत्रिय को अपने कर्तव्यपालन में मंगल-अमंगल का विचार नहीं करना पड़ता। उसे प्रयत्न करने-भर से सरोकार है। आप काकाजू, राजा के पास अवश्य जाएँ, उन्हें लिवा लाएँ और उनसे कहें कि-' 


यहाँ गोमती अपने आवेश के द्रुतवेग के कारण स्वयं रुक गई, कुमुद की क्षणिक उत्तेजना शांत हो गई थी। बहुत मीठे स्वर में बोली, 'गोमती, तुम्हें व्यर्थ ही कष्ट झेलना पड़ रहा है। मैं नवाब की आँखों में मार डालने योग्य भले ही समझी जाऊँ, क्योंकि दुर्गा की पूजा करती हूँ, परंतु तुमने किसी का क्या बिगाड़ा है? तुम क्यों यहाँ वन के क्लेशों को नाहक भुगत रही हो? मेरी एक सम्मति है।'

'क्या आदेश है?' गोमती ने भोलेपन के साथ, परंतु काँपते हुए स्वर में पूछा। 'तुम दलीपनगर के राजा के पास चली जाओ।' कुमुद ने कहा। 'क्यों?' नरपति ने पूछा। 'क्यों?' क्षीण स्वर में गोमती ने प्रश्न किया।

कुमुद ने उत्तर दिया, 'तुम रानी हो। वह राजा हैं। तुम्हारे हाथ में उस रात का कंकण अब भी बँधा हुआ है। भाँवर पड़ना-भर रह गई थी। वह दलीपनगर में हो जाएगा। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि आगामी युद्ध जो राजा और नवाब के बीच यहाँ होनेवाला है, कुशलपूर्वक समाप्त न होगा। इसलिए मैं चाहती हूँ कि गोमती, तुम दलीपनगर चली जाओ। देवी सर्वव्यापिनी है। हम लोग किसी जंगल में भजन करेंगे।'

नरपति तुरंत बोला, 'चाहे जो कुछ हो, अब की बार नवाब के साथ उनका रण मचेगा। राजा सबदलसिंह ने भी निश्चय कर लिया है। रण-निमंत्रण देने राजा देवीसिंह के पास जा रहा है। मुझे यह कार्य सौंपा गया है। वहाँ से लौटकर हम लोग भले ही जंगल में चले जाएँगे, परंतु अभी हाल में उसके लिए कोई काफी कारण नहीं समझ में आता।

गोमती हमारे साथ चलना चाहे, तो हम बेखटके उसे महलों में पहुँचा देंगे। मैं अकेला नहीं जाऊँगा, और भी कई लोग जाएंगे।'
तिरस्कारपूर्ण स्वर में गोमती ने कहा, 'मैं स्वयं वहाँ जाऊँगी? मेरी बोटी-बोटी चाहे कोई काट डाले, परंतु मैं ऐसे तो कदापि नहीं जाऊँगी। मैं भी इनके साथ जंगल में भजन करने को तैयार हूँ।' 


कुमुद ने कहा, 'तब आप यों ही बहुत-सी खून-खराबी कराने के लिए क्यों दलीपनगर जाते हैं? यदि नवाब इस बात को सुनेगा, तो और भी चिढ़ जाएगा।'
'बात तो विलकुल ठीक है। नरपति बोला, परंतु राजा सबदलसिंह ने निश्चय कर लिया है और मझे अपने लोगों का अगआ बनाया है। यदि मैं न जाऊँगा, तो और लोग अवश्य जाएँगे। न जाने मे मेरी बड़ी निंदा होगी। राजा देवीसिंह सबदलसिंह के अन्य भाई-बंदों द्वारा न्योता भी पाकर लड़ाई के लिए आवेंगे, परंतु मुझे इसलिए चुना गया है कि वह आने में किसी प्रकार का विलंब या संकोच न करें।' 


गोमती ने जोश के साथ कहा, 'आपको अवश्य जाना चाहिए।'

ऊपर की ओर देखकर कुमुद बोली, 'अच्छी बात है, जाइए। जो कुछ होना होगा, वह बिना हुए नहीं रुकेगा।'
नरपति बोला, 'मैं वहाँ गोमती की बात अवश्य कहूँगा।'

'आवश्यकता नहीं है।' गोमती बोली।

नरपति ने कहा, 'केवल इतना कि तुम यहाँ कुशलपूर्वक हो।'

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