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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:६१:

रामनगर से लौटकर एक दिन कालेखाँ विराटा में सबदलसिंह के पास आया। राजा ने उसका आगत-स्वागत किया। जितनी देर वह ठहरा, राजा देवीसिंह के विरुद्ध बातें कहता रहा, परंतु जाते समय तक अपने आने का तात्पर्य नहीं बताया। सबदलसिंह ने सोचा-युद्धों का समय है, कुंजरसिंह की सहायता का वचन नहीं, तो भरोसादे ही दिया है, नवाब भी शायद उसका पक्षपाती हो; न भी हो, तो शत्रुका शत्रु मित्र के समान होता है। यह कल्पना करके उसने निष्कर्ष निकाला कि देवीसिंह से जो आगामी युद्ध होनेवाला है, उसमें नवाब को यथाशक्ति सहायता करने के लिए कहने को आया है। स्पष्ट न कहने पर भी भाव वही था। कालपी के साथ विराटा का करीब-करीब मातहती का संबंध था, इसलिए स्पष्ट कथन की जरूरत सबदलसिंह ने नहीं समझी। कालेखाँ से जाने के पहले वह बोला, 'हमारे पास आदमी रामनगर के रावसाहबसे अधिक नहीं हैं, परंतु हृदय हमारा वैसा लोभी नहीं है। नवाब साहब के लिए हम लोग अपना सिर देने के लिए तैयार हैं।'

'यह तो उम्मीद ही है।' कालेखाँ ने कहा, 'जिस समय जरूरत पड़ेगी, आपसे देवीसिंह को ललकारने के लिए कहा जाएगा।'

'आपने बड़ी कृपा की, जो हमारी कुटी पर आए।' राजा ने विनयपूर्वक कहा, 'इतनी-सी बात के लिए कष्ट उठाने की जरूरत न थी।'

'पुराने रिश्तों को ताजा करने के लिए कभी-कभी मिलने की जरूरत पड़ती है।' कालेखाँबोला, 'एक और भी छोटा-सा काम था, परंतु उसके बारे में अभी तक इसलिए अर्ज नहीं किया था कि और महत्त्व की बातों के कारण उसका ख्याल ही न रहा था। अब याद आ गई।'

विनीत सबदलसिंह ने और भी नम्र होकर पूछा, 'मेरे लायक और जो कुछ आज्ञा हो, कहिए।'

कालेखाँ ने एक-एक शब्द तौलकर कहा, 'नहीं, ऐसी कोई बड़ी बात नहीं है। वह जो आपके यहाँ देवीजी के मंदिर में पालर से एक लड़की भागकर आई है-'

कालेखाँ रुक गया। सबदलसिंह ने भयभीत होकर प्रश्न किया, 'क्या उस बेचारी से कोई अपराध हो गया है? देखने में तो बड़ी भोली-भाली दीन कन्या है।'

'अपराध नहीं बना है।' कालेखाँ ने नम्रता का आवरण दूर फेंककर कहा, 'उसके सौभाग्य में रानी बनना लिखा है, नवाब साहब को उसके सौंदर्य के मारे खाना-पीना हराम है।'

सबदलसिंह का कलेजा धुक्-धुक् करने लगा। कोई शब्द मुँह से न निकला। कालेखाँ ने उसी स्वर में कहा, 'आपके लिए कोई संकट की समस्या नहीं है। आपके धर्म पर कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा रहा है। नवाब साहब आप लोगों के मूर्ति-पूजन और लाखों देवी-देवताओं के पूजन में कभी खलल नहीं डालते। वह लड़की आपके गाँव की भी नहीं है। आपको कुछ करना नहीं होगा। हम सब ठीक-ठीक कर लेंगे। यह हम कुरान शरीफ की कसम पर आपको यकीन दिलाते हैं कि आपके मंदिर या देवता का किसी तरह का अपमान न किया जाएगा और वह लड़की नवाब साहब के महल में रहते हुए भी शौक से अपनी पूजा-पत्री करती रह सकती है।'

सबदलसिंह बोला, 'मैं इसमें अपने लिए बड़ी भारी आफत देख रहा हूँ। उस लड़की को लोग देवी का अवतार मानते हैं। और वह मेरी जाति की है। क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता।'

कालेखाँ ने कहा, 'आपको कुछ करने की जरूरत नहीं। आप चुपचाप अपने घर में बैठे रहिए। हम दोनों आदमी यानी मैं और नवाब साहब उसे एक दिन चुपके से आकर लिवा जाएँगे। वह हँसती-खेलती यहाँ से चली जाएगी। ऐसा हो जाने देने में आपका फायदा है। लड़ाई में आपको आदमी या रुपया-पैसा न देना पड़ेगा और मौका आने पर आपके पुराने दुश्मन रामनगर के राव को नष्ट करके वह गढ़ी भी आपको दिला दी जाएगी।'

सबदलसिंह ने उस समय कोई और उपाय न सोचकर कहा, 'हमें थोड़ा-सा समय दीजिए। भाई-बंदों से बात करके बहुत शीघ्र कहला भेजूंगा।'

'कहला भेजिएगा।' कालेखाँ रुखाई के साथ बोला, 'आपके या आपकी जागीर के साथ कोई जुल्म नहीं किया जा रहा है। यदि जरा-सी बात के लिए आपने नवाब साहब का अपमान किया, तो नाहक आप सब लोग तकलीफ पाएँगे।' फिर जाते-जाते उसने कहा, 'यदि उस लड़की को आपने कहीं छिपा दिया या भाग जाने दिया तो अंत में जो कुछ होगा, उसका दोष मेरे मत्थे न दीजिएगा।' 


कालेखाँ यह धमकी देकर चला गया। सबदलसिंह बहुत खिन्न-मन होकर एक कोने में बैठे-बैठे सोच-विचार में डूबता-उतराता रहा। जब मन कुछ स्वस्थ हुआ तब जो-जो बातें कालेखाँ के साथ हुई थीं, उनकी एक-एक करके, बार-बार कल्पना करके कढ़ने लगा।

वह नम्र प्रकृति का मनुष्य था, परतु जब ऐसी प्रकृति के मनुष्यों की नम्रता की . . अवहेलना की जाती है, या उनकी विनय को पददलित किया जाता है, तब उन्हें आग-सी लग जाती है। वह भी संभव-असंभव प्रयत्नों द्वारा प्रतिकार की बात सोचने लगा। 


उसने सबसे पहले अपने चुने हुए भाई-बंदों को इस पीड़ापूर्ण रहस्य के प्रकट करने का निश्चय किया।
उसने उसी दिन उन लोगों के साथ बातचीत की। नरपतिसिंह बहुत उत्तेजित और भयभीत था। आशा, विश्वास और सौगंध दिलाकर उसे कुछ शांत किया। परंतु इन दाँगियों के निश्चय का कुछ समय तक किसी को पता न लगा। केवल यह देखा गया कि गढ़ी की मरम्मत शीघ्रता के साथ हो रही है और तोपें मौके के स्थानों पर लगाई जा रही है।

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