यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक आखिरी चट्टान तकमोहन राकेश
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बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त
हम कॉफ़ी के बगीचे में पहुँच गये। ढलानों पर कॉफ़ी के पेड़ों के साथ-साथ नारंगियाँ और काली मिर्चें लगायी गयी थीं। कई-एक स्त्री-पुरुष कॉफ़ी के लाल-लाल बेर टोकरियों में जमा कर रहे थे। कहीं पहले के तोड़े बेर सूख रहे थे, कहीं ताज़ा बेर सूखने के लिए फैलाये जा रहे थे। गोविन्दन् ने बताया कि चार-पाँच दिनों में जब बेर सूखकर काले पड़ जाते हैं, तो वहाँ से क्योरिंग के लिए भेज दिये जाते हैं। यह भी बताया कि उस जमीन में पानी देने की ज़रूरत नहीं पड़ती। वह अपने अन्दर के पानी से ही पौधों को हरा रखती है।
तभी ऊपर की तरफ़ से कुछ कुत्तों के ज़ोर-ज़ोर से भौंकने की आवाज़ सुनाई देने लगी। एक मज़दूर लड़की दौड़ती हुई उधर से आयी और ऊपर की तरफ़ इशारा करके उसने गोविन्दन् से कुछ कहा। गोविन्दन् ने मुझे बताया कि मालिक ने ऊपर से उस लड़की को यह पूछने के लिए भेजा है कि मैं कौन हूँ और बिना इजाज़त उसकी ज़म़ीन पर क्यों आया हूँ। फिर आवाज़ ज़रा धीमी करके वह बोला, "वह डरता है कि उस दिन जिस तरह मज़दूर लोग चाय-फ़ैक्टरी का मैनेज़र को पकड़ लिया, उसी तरह इसको भी न पकड़ ले। सोचता है तुम शायद मज़दरों के बीच प्रोपेगेंडा करने के वास्ते आया है। इस आदमी के पास यहाँ तीन-चार सौ एकड़ जमीन है। हर साल एक-एक एकड़ से इसको चार-चार पाँच-पाँच हज़ार रुपये आमदनी होती है।"
कुत्ते भौंकते हुए हमारी तरफ़ उतर रहे थे। उनका गोरा मालिक डंडा हाथ में लिये उनके पीछे-पीछे आ रहा था। गोविन्दन् ने अपनी भाषा में लड़की से कुछ कहा, फिर मुझसे बोला, "आओ, चलें। यहाँ ठहरने में ख़तरा है। इस आदमी का कुत्ता बहुत ज़बरदस्त है।"
लड़की डरी-सी लौट गयी। कुत्ते अब काफ़ी नीचे आकर भौंक रहे थे। हम लोग वापस चलने लगे, तो गोविन्दन? बोला, "देखो, कितना बड़ा-बड़ा कुत्ता है और कैसे भौंकता है! ऐसे आदमी को आदमी की मदद का तो भरोसा नहीं है न। ख़ाली कुत्ते का ही भरोसा है।" अपनी इस बात से ख़ुश होकर वह हँसा। बात उसने ऐसे ढंग से कही थी कि मुझे भी हँसी आ गयी।
"अकेला आदमी है," गोविन्दन् कहता रहा। "न बीवी है, न बच्चा है। दोस्त-यार, सगा-सम्बन्धी, जो कुछ है, यह कुत्ता ही है।"
कुत्ते उसी तरह भौंक रहे थे। मालिक उनसे काफ़ी पीछे खड़ा डंडा हिलाता हुआ हमें लौटते देख रहा था।
हम लोग ऊपर सड़क पर पहुँच गये, तो गोविन्दन् बोला, "पता नहीं किस तरह यह आदमी अपनी ज़िन्दगी काटता है। दिन-भर करने को कुछ होता नहीं। ख़ाली कमरे में बैठा रहता है, या डंडा और कुत्ता लिये घूमता रहता है। जब यह मरकर परमात्मा के घर जाएगा, तब भी डंडा और कुत्ता रखवाली के लिए साथ लेता जाएगा। पर पता नहीं कुत्ता वहाँ इसके साथ जाने को तैयार होगा या नहीं।" इस बात पर हम दोनों फिर हँस दिये।
हम लोग लौटकर वहाँ पहुँच गये थे जहाँ से गोविन्दन् मेरे साथ चला था। उसे धन्यवाद देकर मैं उससे विदा लेने लगा, तो नीचे काम करते अपने साथियों को आवाज़ देकर उसने उनसे कुछ कहा और मुझसे बोला, "मैं तुम्हारे साथ बस की सड़क तक चलता है। काम तो मेरे हिस्से का रखा है, मैं आ के पूरा करेगा।" और वह फिर मेरे साथ आगे चल दिया।
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- प्रकाशकीय
- समर्पण
- वांडर लास्ट
- दिशाहीन दिशा
- अब्दुल जब्बार पठान
- नया आरम्भ
- रंग-ओ-बू
- पीछे की डोरियाँ
- मनुष्य की एक जाति
- लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
- चलता जीवन
- वास्को से पंजिम तक
- सौ साल का गुलाम
- मूर्तियों का व्यापारी
- आगे की पंक्तियाँ
- बदलते रंगों में
- हुसैनी
- समुद्र-तट का होटल
- पंजाबी भाई
- मलबार
- बिखरे केन्द्र
- कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
- बस-यात्रा की साँझ
- सुरक्षित कोना
- भास्कर कुरुप
- यूँ ही भटकते हुए
- पानी के मोड़
- कोवलम्
- आख़िरी चट्टान