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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


क्यू में सुखबीर के आगे खड़े-खड़े भुनभुनाने वाले बूढ़े के पेट में गोली लगी थी। वह किसी तरह घिसट कर एक लेटर बाक्स के पीछे छुप गया था। दौडने वाला सिपाही उसे देख कर रुक गया-हूं, हरामी, चोर, साला!

बूढ़ा आदमी अपने पेट पर मैली धोती दबाए था, फिर भी, खून बड़ी तेजी से बह कर धूल में लिथड़ता जा रहा था। सिपाही को देख कर उसने दोनों आंखें फाड़ीं और रेत में पड़ी हुई मछली की तरह मुंह फैलाया। आवाज कोई भी नहीं हुई। सिपाही की बंदक से वही फटे बांस जैसी आवाज हुई और उसके खुले हुए मुंह का आधा हिस्सा जबड़े सहित दूर-दूर तक छितरा गया। उस आदमी ने गरारा करने जैसी आवाज की, गिरकर थरथराने लगा।

सुखबीर को लेकर पुलिस की गाड़ी दस मिनट में ही कोतवाली पहुंच गई थी। वहां काफी हलचल थी। सुखबीर को कालर से पकड़कर धकेलते हए ले जाकर उन्होंने एक मैले से कमरे में खड़ा कर दिया। वह कमरा क्या, एक बहुत वजनी मेज पड़ी थी।

उसके अंदर धकेले जाते ही एक छोटा अफसर तेजी से आया और मेज की दराजें टटोलने लगा। लगभग उसके पीछे आ रहे सिपाही ने दरवाजे से झांक कर पूछा-साइकिल लाऊं?

-साइकिल को दे अपनी मां की...में। साले वक्त देखते नहीं और-! वह गालियां फेंक कर दराज में अंदर तक हाथ घुसा कर कुछ खोजने लगा। ऊपर की दराज में न मिलने पर उसने दूसरी दराज खोलनी चाही। वह खुली नहीं। आने के बाद से अब तक सुखबीर दीवार से सटा चुपचाप खड़ा था। दरअसल वह बहत तेजी से कुछ सोचने की कोशिश कर रहा था। थैला और राशन कार्ड अभी उसके हाथ में ही था। उसने सोचा कि दराज खोलने में मदद करने पर शायद उसके प्रति पलिस वालों का रुख थोड़ा नरम हो जाएगा इसलिए दराज की तरफ लपकते हए उसने कहा-जनाव, लाइए मैं खोल देता हूं।

-अबे तू कौन है? छोटा अफसर एकदम चौंक गया। दरवाजे पर खड़े दो सिपाही अंदर आ गए।

-बात ये है जी कि मैं राशन लेने निकला था, सुखबीर ने हकला कर कहा।

-अबे तो ये राशन की दुकान है? देखो साले को! छोटा अफसर चिढ़कर लगभग मार वैठने वाला था कि अंदर आए सिपाहियों ने बताया कि इसे अभी जुलूस से गिरफ्तार किया गया है।

-अबे हरामजादो तो इसे इस तरह मेरे खोपड़े पर क्यों खड़ा किया है। बंद क्यों नहीं किया अब तक?

-मगर जनाब आप मेरी बात सुनिए...

बात सुनने की वहां किसे फुरसत थी? और फिर इस हंगामें में आठवीं गाड़ी की चाभी खो गई थी। सिपाहियों ने फुर्ती से सुखबीर का कालर पकड़ा और खींच कर एक कोठरी में बंद कर गए।

कोठरी का दरवाजा बंद होने के बाद सहसा उसे लगा कि उसके साथ कोई भयानक गड़बड़ी हो गई है हालांकि उसे यह विश्वास जरूर'था कि अगर उसने धीरज से काम लिया तो गलतफहमी दूर हो सकती है।

हो जाता है। सभी के साथ हो जाता है, उसने सोचा। अभी दो रोज पहले वह बीवी को बता रहा था कि लोगों को किस तरह आम आदमी की मुश्किलों का ध्यान ही नहीं रह गया। वह एक बार दफ्तर जा रहा था कि बस रुक गई। मालूम हुआ कोई जुलूस निकल रहा था। और कोई छोटा-मोटा जुलूस होता तो कहा जाता। कोई पच्चीस-तीस हजार लोग तो होंगे ही।

दो छोटे बच्चों की आवाज से सुखबीर का ध्यान बंट गया। पुलिस स्टेशन पर इस तरह बच्चों की आवाज सुनकर उसे ताज्जुब हुआ। कोठरी के दरवाजे की मोटी और मैल चढ़ी हुई छड़ों से उसने बाहर झांका। धकेल कर यहां लाए जाते वक्त उसने ध्यान ही नहीं दिया था कि थाने के अंदर एक बड़ा-सा आंगन था और चारों ओर ऐसी ही कोठरियां बनी हुई थीं।

बाहर किसी ने आवाज दी-एई सुनो!

आवाज में रोष था। आवाज देने वाला वहां से दिखाई नहीं दे रहा था। भारी-भारी बूट पटकता हुआ कोई भाग कर उस आवाज की दिशा में भाग कर जाता सुनाई दिया।

-सुनो नरिंदर कहां है?

-बुलाऊं हुजूर?

-नहीं रहने दो। सुनो ये मेरे कजिन के बच्चे हैं। ये चोर देखना चाहते हैं। जरा इन्हें चोर दिखा दो। नरिंदर से कहना, रात को कोठी पर मुझे फोन कर ले।

रोबीली आवाज ने कहा।

-बाई अंकल, दोनों बच्चों ने एक साथ माउथ आर्गन जैसी आवाज में कहा। थोड़ी दूर से रोबीली आवाज सुनाई दी।-बाई!

-और सुनो बच्चों को चोर दिखाकर कोठी पर पहुंचाना।

-जी हुजूर।

सुखबीर कान लगाए रहा।

-उधर से नहीं, इधर से दिखाओ, किसी बच्चे ने कहा। इधर से सबसे पहली कोठरी सुखबीर की ही थी। दोनों बच्चे चिकने और चमकदार थे। उन्होंने चुस्त कपड़े पहन रखे थे। सुखबीर की कोठरी से थोड़े दूर खड़े हो कर बच्चे उसे देखने लगे। उसे अजीब शर्मिंदगी महसूस हुई। कोठरी में वह थोड़ा पीछे की ओर हट गया। बचपन में वह भी चोर देखने गया था। तब वह बहुत छोटा था। रात के पिछले पहर शोर से वह भी जाग गया था। मुहल्ले में कहीं चोर पकड़ा गया था।

सुखबीर ने बाप से जिद की कि वह भी चोर देखेगा। चोर देखने के बाद एकदम निराश हो गया था। चोर बेहद दुबला-पतला और आम आदमियों जैसा ही था बल्कि पिटने के बाद वह सबसे ज्यादा निरीह और भयभीत लग रहा था। चोर जैसी कोई बात उसमें थी ही नहीं।

सुबह के करीब उसने जब अपनी प्रतिक्रिया दी तो उसका बाप उसका मंद देखता रह गया था।

दोनों बच्चों में लड़की कुछ बड़ी थी और तेज भी थी। लड़का अभी सखबीर की कोठरी के सामने ही था कि लड़की सिपाही को घसीटती हुई तीसरी-चौथी कोठरी तक चली गई थी।

बच्चा उसे अजीब निगाहों से देख रहा था। उन निगाहों में भय भी था और तिरस्कार में भरा दर्प भी।

बच्चे को पता नहीं क्या सूझा कि वह दो कदम पीछे हटा। इधर-उधर खोज कर उसने एक पत्थर का टुकड़ा उठा लिया। सुखबीर जब तक कुछ बोले, तब तक बच्चे ने वह पत्थर उस पर फेंका। पत्थर इत्तफाक से अंदर नहीं आया। जंगले से टकरा कर बाहर ही गिर गया। बच्चे ने इधर-उधर देखा लेकिन और पत्थर नजर नहीं आया। एक बहत ही छोटा पत्थर मिला लेकिन उसे फेंक कर बच्चे को खास मजा नहीं आया।

सुखबीर ने महसूस किया कि बच्चा वह पत्थर उठाते हए डर रहा है। सुखबीर पहले तो इस पत्थरबाजी से चिढा था लेकिन बाद में उसने सोचा कि बच्चा नासमझ है। उसे क्या पता कि वह कौन है। अगर बच्चा यह छोटा-सा मनोरंजन कर ही ले तो कौन वह घायल हो जाएगा।

बच्चा तनाव भरी नजरों से उसे घूरता हुआ पत्थर की ओर झुक रहा था।

सुखबीर उसकी बचकानी दहशत देखकर मुस्कुराया। बच्चा जाने क्यों उसके मुस्कुराने से ही डर गया और डर कर दो कदम पीछे हटा। सुखबीर को उस पर तरस आ गया। अपनी मुस्कुराहट और ज्यादा फैलाते हुए उसने जंगले के पास आकर कहा-उठा लो बेटे, उठा लो।

बच्चा इस बार पीछे नहीं हटा। हां उसकी आंखें भय से और चौड़ी हो गई, उसके होंठ कांपे और वह जोर से रोने लगा।

-रोमी, क्या हुआ? उसकी बहन ने पूछा। तब तक साथ वाला सिपाही भाग कर बच्चे के पास पहुंच गया था। बच्चा जोर-जोर से रोए जा रहा था। बड़ी मुश्किल से उसने हाथ उठा कर सुखबीर की तरफ इशारा किया।

-ओहो, सिपाही ने सुखबीर की तरफ देख कर दांत पीसे। सुखबीर खुद घबरा गया था। हकलाते हुए बोला-वो बात ये है कि वो डर गया। मैं...

-डर गया का बच्चा, सूअर साला! सिपाही दहाड़ा और डंडा उठाकर सुखबीर की ओर झपटा। डंडा उसने मारा तो मगर वह जंगले से टकरा गया। इससे उसे और गुस्सा आ गया। इस बार उसने जंगले में हाथ डाल कर डंडा उसकी पसलियों में घंसा दिया। वह दर्द से तिलमिला गया। वह छटपटाने लगा। बच्चा चुप हो गया था। लड़की ने उसे एक बाजू में लपेट कर सटा लिया और सुखबीर की तरफ देख कर बोली-ईडियट!

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