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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


-डेजी देख कितने, चोर! बच्चे ने खुश हो कर कहा। थाने के आंगन में अचानक बहत से कैदियों की भीड़ जमा हो गई। उन्हें एक बस में भर कर लाया गया था। उन्हें हथियारबंद पुलिसवालों ने घेर रखा था। एक-एक कोठरी खोल कर उन्हें भरा जाने लगा।

सुखबीर की कोठरी में आठ आदमी और ठूंस दिए गए। अब वहां बैठने की जगह भी मुश्किल से ही बची थी। आनेवालों में एक बुड्डा आदमी भी था। बाकी छोटी उम्र के छात्र लग रहे थे। बुड्वा दरवाजा बंद होते ही गालियां बकने लगा-उनकी मां को...साले जेल में बंद करेंगे। अरे कर दो। जेल क्या बुरी है। बहन...बाहर मेहनत भी करो और भूखे भी मरो। जेल में साली मेहनत होगी तो रोटी तो मिलेगी। हमें क्या!

लड़के बेहद खामोश, कुछ सहमे हुए लग रहे थे। सुखबीर बूढ़े को ताज्जुब से घूरने लगा। बूढ़ा खामोश होने की बजाए बोलता ही चला जा रहा था। आखिर सुखबीर ने टोका-जनाब आप गलती कर रहे हैं।

-क्या? बूढ़े ने ताज्जुब से उसे घूरा।

-मैं ठीक कह रहा हूं, जनाब इस तरह ताव खाकर आप अपना केस बिगाड लेंगे। सुखबीर ने कहा।

-केस बिगाड़ेंगे? बुड्ढे ने व्यंग्य से कहा। लो, इसकी सुनो। केस बिगाड़ेंगे।

केस मां का...बनता कैसे है? ऐं?

-आप गाली क्यों देते हैं, जनाब?

-क्या है बे! करीब से गुजरते हुए एक सिपाही ने हाथ की फाइल जंगले पर ठोंकी।

-जनाब हवलदार साहब, बात ये है कि...

सुखबीर अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि एक मोटी-सी गाली निकालता हुआ सिपाही आगे बढ़ गया। सुखबीर सकपका कर चुप हो गया। बुड्डा चुप नहीं हुआ-लोग पुलिस वाले को जाने क्या समझते हैं। हद ही हो गई है। बहन. ..सोच कर देखो तो यकीन नहीं होता। अरे अंगरेज साले ने दो सौ साल में इतनी गोलियां नहीं चलाई होंगी जितनी इन हरामियों ने बीस बरस में चला दीं। आदमी की जान की तो कोई कीमत ही नहीं रह गई।

-वैसे देखिए, मैं आपके खिलाफ कुछ नहीं कहता। सुखबीर ने सफाई देनी चाही।

-अबे कहा भी तो परवाह किसको है! क्यों? किसको परवाह है! कहो! बड़ा भिन्नाया।

छोटी उम्र का लड़का बहुत देर से कुछ कहना चाह रहा था। बुड्डा चूंकि लगातार बोले जा रहा था इसलिए उसे मौका ही नहीं मिल रहा था। उसे दरअसल पेशाब लगा हुआ था लेकिन वह समझ नहीं पा रहा था कि कहां करे।

-अरे इतनी सी बात थी? बुड्डा सुनकर हंस पड़ा, अरे बहन...यहीं कर दे। कौन अपना घर है।

लड़का और ज्यादा सकपका गया।

-लो साहबजादे डर रहे हैं। अरे अभी पुलिस वाला बर्फ पर लिटा कर हंटर लगाए तो अपने आप निकल जाएगा या नहीं? उस वक्त क्या उसे पकड़ कर रखोगे? वैसे पेशाब तो मुझे भी लगा है...कहकर बुड्डा अपना पायजामा खोलने लगा।

-अरेरे, यहीं! सुखबीर घबरा कर पीछे हट गया।

बड़ा तब तक अपना काम करने लगा था। लड़के ने फिर भी पेशाब नहीं किया। सुखबीर कुढ़ने लगा। एक तो इतने लोगों के आने के बाद वैसे ही बैठने की जगह नहीं बची थी, ऊपर से बुड्ढे ने दीवार के सहारे जो गंदगी फैलाई थी. वह सारे फर्श पर फैल गई थी। उसे इन लोगों से कोई खास सहानुभूति नहीं थी। फिर इस गड़बड़ी के बाद तो उसका मन बिल्कुल ही खट्टा हो गया था।

थाने की गालियों और चिंघाड़ों के बीच शाम से एक आवाज शामिल हो गई थी-किसी के कराहने और दर्द से चीख-चीख पड़ने की आवाज। हालांकि यह आवाज उतनी तेज नहीं थी, फिर भी सुखबीर को सबसे ज्यादा साफ सुनाई दे रही थी। बीच-बीच में जब वह आवाज कुछ ज्यादा ही तेज ही जाती थी तो वह कोठरी के वाकी लोगों की ओर देखने लगता था।

अब अंधेरा हो गया था और एक-दूसरे के चेहरे साफ नहीं दिखाई दे रहे थे, फिर भी न जाने कैसे बुड्डा सुखवीर के मन की वात भांप लेता था। एक बार जब कराहने की आवाज बहुत ही तेज आई तो बुड्डा हंस पड़ा। फिर खुद ही जैसे अपनी हंसी पर टीका करता हुआ बोला-अभी साली हंसी आ रही है। दूसरे को तकलीफ हो तो ऐसा ही लगता है। जब अपनी...

-मैंने सुना है नाखूनों में कीलें ठोंक देते हैं, सुखबीर ने कहा।

-घबराते क्यों हो बर्खरदार, अभी पता लग जाएगा। जब आ ही गए हो तो यह भी देख लेना, बुड्ढे ने मजे लेते हुए व्यंग्य किया।

बहुत देर से पेशाव रोके हुए छोटी उम्र का लड़का जैसे अचानक छटपटाया और लोगों को धक्का देते हुए जंगले तक आया और जंगलों से एकदम बंदर की तरह चिपट कर वह पूरे जोर से चिल्लाया-इन्कलाब जिंदाबाद!

-अरे ये सब को मरवाएगा, सुखबीर धीरे से भुनभुनाया।

बुड्ढे की नजरों में तरस उभर आया। वह समझ गया कि चीखने वाला लड़का दरअसल बहुत डर गया था। लड़के की आवाज फट गई थी लेकिन वह बिना रुके नारे लगाए जा रहा था। उसके उत्तर में अब कुछ कोठरियों से भी नारे दुहराए जाने लगे थे। लेकिन लड़के की आवाज उन सबसे अलग थी।

सुखबीर डर रहा था कि अभी कोई सिपाही आएगा और लड़के को पीटने लग जाएगा। हो सकता है, गुस्से में वह कोठरी के सभी लोगों को पीट डाले। ऐसे मौकों पर शांति और धीरज से काम लेना चाहिए, उसने सोचा। लड़के की आवाज जब तक बिल्कुल बैठ नहीं गई तब तक वह जोर लगाता रहा।

सुखबीर को लगा, शायद वह खुद वहीं खड़े-खड़े ही सो गया था। उसे अपनी नींद पर ताज्जुब भी हुआ। जंगले वाले दरवाजे की खड़क से उसकी नींद खुली। बाहर कई बंदूकधारी सिपाही खड़े थे।

-एई, बाहर आओ। किसी ने उसको ललकारा। उसी को बुलाया जा रहा था। अचानक उसके पेट में एक मरोड़ जैसी उठी। उसके टखने कमजोर हो गए। उसने घबरा कर पूछा-जी मैं?

-बाहर आ!

सुखबीर यंत्रचालित सा बाहर आ गया। उसके साथ के बाकी लोग भी बाहर निकाल लिए गए। अपने साथ बाकी लोगों के भी निकाले जाने पर वह थोड़ा आश्वस्त हुआ। उसने सोचा, अब मौका आ गया है, इन्हें असलियत बता देनी चाहिए। कह देना चाहिए कि वह नाहक पकड़ा गया है।

-भाई साहब, आप मेरी बात सुनेंगे? उसने हकलाकर बेहद दयनीय आवाज में कहा। लेकिन उसकी बात सुनने की जैसे किसी को फुरसत ही नहीं थी। उन्हें लगभग खदेड़ते हुए बाहर लाया गया। सड़क पर जबर्दस्त सन्नाटा था। एक बड़ी-सी काली गाड़ी वहां पहले से ही खड़ी थी। बड़ी फुर्ती के साथ उन्हें गाड़ी में ठंस दिया गया। उनके साथ ही बंदूकधारी सिपाही भी बैठ गए। बुड्डा अब बिल्कुल खामोश हो गया था। उनके बैठते ही गाड़ी रवाना हो गई। गाड़ी के अंदर जबर्दस्त घुटन, अंधेरा और मनहूसियत थी। सुखबीर को अब थोड़ा संतोष हो रहा था क्योंकि उसे यकीन था कि नाखूनों में कीलें ठोंकने की बजाय उसे जेल ले जाया जा रहा था।

लगभग आधे घंटे बाद गाड़ी रुकी। सिपाही कूद-कूद कर नीचे मुस्तैदी से खड़े हो गए। उसके बाद कैदियों को उतारा गया। सुखबीर को ताज्जुब हुआ कि गाड़ी यहां क्यों रोकी गई थी। यहां से करीब आधे फर्लाग पर नदी का पाट चमकता हुआ दिखाई दे रहा था। हवा बिल्कुल स्तब्ध थी। उनके साथ दो अफसर भी आए हुए थे। थोडी देर में एक अफसर इन लोगों की तरफ आया। उसने सब की ओर देखा और फिर एक आदमी छांट लिया-तुम इधर आओ!

उस युवक को साथ लेकर एक अफसर नदी की तरफ चला दूसरे अफसर ने दो बंदूकधारियों को कोई इशारा किया। बंदूक वाले भी उनके पीछे चले गए। सडक के बाद पथरीली ढाल और घनी झाड़ियां थीं। दो क्षण बाद ही चारों निगाह से ओझल हो गए। अभी कोई दो-तीन मिनट ही बीते होंगे कि दो गोलियां चलने की आवाज उसी ओर से आई। परिंदे शोर करते हुए आसमान में उड़ने लगे।

सुखबीर यकायक समझ नहीं पाया कि वह क्या करे। उसने चाहा कि वह अफसर से कुछ कहे लेकिन उसकी आवाज गले में ही फंस कर रह गई। उस आदमी के साथ गया हुआ अफसर वापस आ गया। पंक्ति में से एक और युवक की ओर इशारा करके उसने कहा-एई, तुम आओ!

बुलाया जानेवाल युवक कांपा और अपनी जगह खड़ा रह गया। एक सिपाही ने अपनी बंदूक के कुंदे से उसे धकेला। लगा वह गिर जाएगा लेकिन चलेगा नहीं। उसके खुश्क होंठ इस तरह फड़क रहे थे जैसे वह कोई मंत्र पढ़ रहा हो। सिपाही ने बांह पकड़ कर उसे खींचा तो वह गिरने लगा। दो सिपाहियों ने फुर्ती से उसे दोनों बाजुओं से लटका लिया और लगभग घसीटते हुए ले चले। युवक के गले से कुछ इस तरह की आवाज निकल रही थी जैसे वह नींद में हंस रहा हो।

दो गोलियां चलने की आवाज फिर सुनाई दी। सुखबीर को लगा जैसे वह आवाज कानों की बजाय कहीं और से शरीर के अंदर घुस रही हो। उसके मुंह में ढेर-सा कसैला पानी भर गया। जब तब वह उसे थूके, तब तक उसका कंठ फोड़ कर एक लंबी-सी उल्टी हई। वह उल्टी करके अपराधी की तरह पुलिस वालों की ओर देखने लगा जैसे माफी मांग रहा हो। उसके कान अब बिल्कुल बंद हो गए थे और उनमें अजीब सी सनसनाहट होने लगी थी। उसने कान के पास हाथ फेरा तो महसूस हुआ कि ठंडे पसीने से वह बुरी तरह भीग चुका है। लेकिन उसकी खाल इतनी मुर्दा हो गई थी कि अपनी हथेली का स्पर्श भी मुश्किल से ही महसूस हो रहा था।

इस बार वे लोग वुड्ढे को ले जाना चाह रहे थे। बुड्डा पीछे हटता हुआ बड़बड़ाया-तुम लोग गोली मारोगे? बहन के...मुझे गोली मारोगे मादर...

सिपाहियों ने उसे जबर्दस्ती घसीटना चाहा तो वह बुरी तरह दम लगाकर चीखने लगा-बचाओ, बचाओ!

पीछे से एक सिपाही ने तुरंत उसके कंधे के बीचोबीच बंदूक के कुंदे से भरपूर चोट की। बुड्डा दुहरा होकर इस तरह आवाज करने लगा जैसे पानी में डूबते हुए हिचकियां ले रहा हो। उसके बाजू पकड़ कर घसीटते हुए वे लोग झाड़ियों में गायब हो गए।

ठीक इसी वक्त एक जबर्दस्त हंगामा हो गया। छोटी उम्र का लड़का किसी मरती हुई मछली की तरह तड़फड़ाया और जोर से चीखा-मारो! जब तक सिपाही सावधान हों तब तक वह छोटा-सा दुबला लड़का किसी नाराज बिल्ली की तरह एक बंदूकवाले पर टूट पड़ा। उस सिपाही की बंदूक शायद अनायास ही चल गई। लड़का छटपटा कर चीखता हुआ गिरा लेकिन उसी क्षण बाकी लोग बेतहाशा भागे।

अफसर ने पिस्तौल निकाल ली। सुखबीर को लगा जैसे वह सब कुछ किसी नशे में देख रहा है। भागते हुए लोगों पर सिपाही तेजी से गोलियां चलाने लगे। जैसे नींद में कोई चलता है, इस तरह सम्मोहित सा आकर वह अफसर के पास खड़ा हो गया। अफसर ने झटके से अपनी पिस्तौल उसकी ओर उठाई।

सुखबीर ने हाथ जोड़ दिए-जनाब देखिए, मैं तो नहीं भागा और फिर मैं इन लोगों में था भी नहीं। जनाब-मैं...

उसे लगा जैसे वह किसी भारी ट्रक से टकरा गया हो। गोली चलने की आवाज उसने नहीं सुनी। सिर्फ बारूद की एक लपट अंधेरे में दीखी, या शायद उसके दिमाग में। उसके बाद सब कुछ ढीला होता गया जैसे वह रेत की बोरी हो और रेत तेजी से निकल कर छितराती जा रही हो।

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