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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
कटोरी देवी
कटोरी देवी की जीवनी कई अर्थों में बहुत महत्त्वपूर्ण है। सच तो यह है कि
कटोरी देवी अपने समय और समाज की एक तीखी आलोचना मानी जानी चाहिए। वह औरत एक
जरूरी दस्तावेज के तौर पर भी पहचानी जा सकती है।
कटोरी देवी की जीवनी का बयान करने से पहले एक बात बता दूं। उससे परिचय कोई
बहुत सुखद अनुभव नहीं है, बल्कि कुछेक को वह खासा खिजानेवाला और अपमानजनक भी
लगा है। पिछले दिनों ऐसी ही एक घटना अखबारों में छप भी चुकी है।
उस औरत के प्रति अपनी सहानभति प्रकट करने गए एक बहत प्रसिद्ध नेत जैसे ही
अपनी मोटर से उतरे, कटोरी देवी ने एक फोहश गाली दी, अपनी पंजर बन चुकी चारपाई
से उछली और नेता के ऊपर झपट पड़ी। जब तक कोई कुछ समझता, कटोरी देवी ने अपने
हाथ में थमे ईंट के टुकड़े से उसका सिर फोड़कर लहूलुहान कर दिया। नेता जितने
उत्साह से आया था, उतनी ही फुर्ती से मोटर में वापस चला गया। कटोरी देवी इसके
बाद तब तक मां-बहन की गंदी गालियां बकती रही जब तक उसका गला ही थक नहीं गया।
कटोरी देवी से एक परिचय तो बहुत पहले हुआ था। वह मुझे उस परिचय के बाद दो
कारणों से भूली नहीं थी। एक तो उसका नाम बहुत हद तक विचित्र लगा था और दूसरे
जिस वजह से उससे परिचय हुआ था, वह किसी को भी प्रभावित किए बिना नहीं रहती।
वे तीसरे आम चुनाव के दिन थे। इस देश में पहली बार लोगों को महसूस हो रहा था
कि जिन चुनावों से उन्हें बहुत ज्यादा उम्मीद हो चली थी, वे कितना धोखा थे।
प्रधानमंत्री पूरे देश का दौरा कर रहे थे। उनकी पार्टी ने इस बार जो
उम्मीदवार खड़े किए थे, उनमें से ज्यादातर बेहद बदनाम थे। प्रधानमंत्री किसी
भी ऐसे ही मक्कार को मंच पर साथ खड़ा कर लेते थे और घोषणा करते थे कि अगर
मैंने देश के लिए कुर्बानियां दी हैं और अगर मेरे लिए आपके मन में इज्जत है
तो इस आदमी को वोट दें। जनता लगभग सकते में आई हुई यह नजारा देख रही थी।
मैं विरोधी दल की तरफ से चुनाव लड़ रहा था। मेरी समझ में यह बात बहुत देर से
ही आई कि जिस पार्टी की तरफ से मैं चुनाव लड़ रहा था, उसके अध्यक्ष ने
प्रधानमंत्री से समझौता कर लिया था और चुनाव के तुरंत बाद वे प्रधानमंत्री की
पार्टी में शामिल होनेवाले थे। धीरे-धीरे चुनाव की राजनीति तो पार्टी अध्यक्ष
दौलतराव और प्रधानमंत्री के पास चली गई और मेरे पास बचा एक अदद नाटक जो मेरे
उत्साही मित्रों ने मेरे समर्थन में तैयार किया था।
रतूड़ी ने कई बार कहा था कि मैं उसका तैयार कराया नाटक एक बार देख लूं। शुरू
में व्यस्तता ज्यादा होने की वजह से मैं नाटक मंडली से नहीं मिल पाया। इसके
बाद कुछ दिन संसद सदस्य हो जाने के सपने देखते हुए एक खास तरह का बड़प्पन मैं
अपने में अवतरित होते हुए देखता रहा। इस बड़प्पन के प्रभामंडल को लिए हुए
नाटक देखने बैठना छोटी बात लगती रही। इसके बाद मैं पार्टी अध्यक्ष के गोपनीय
समझौते के कारण चुपचाप खिसक लिए कार्यकर्ताओं के खेद में डूबा रहा। इस त्रास
से छुटकारा मुझे मतदान के दिन ही मिला। मतगणना में मैं शरीक नहीं हुआ था।
परिणाम मुझे मालूम था फिर भी चुनाव नतीजों की घोषणा के क्षण तक एक उम्मीद थी,
किसी चमत्कार की। एक आग धीरे-धीरे कलेजे में सुलगती रही थी।
चुनाव का नतीजा आ जाने के बाद नाटक भी बंद हो गया। दूसरे कार्यकर्ता तो कब के
गायब हो चुके थे पर यह नाटक मंडली अभी उसी मुस्तैदी से मेरे प्रति सम्मान
दिखा रही थी। मजे की बात यह है कि मेरे बुरी तरह हार जाने के बावजूद नाटक
मंडली बहुत खुश नजर आ रही थी।
उन्हें देखकर लगता था जैसे उन्होंने अपनी लड़ाई जीत ली है। उन्होंने नाटक खुद
ही तैयार किया था। नाटक में एक ऐसे मंत्री की कहानी थी जो पड़ोस के राज्य में
हुई क्रांति से अपने राजा को बचाने के लिए सीमा अवरुद्ध कर देता है। खबरें
आना बंद कर देता है और राज में चीजों की कमी के कारण परेशानियां पैदा हो जाती
हैं। इन परेशानियों को राजा का मंहलगा बावर्ची झेलता है तो बौखला जाता है। वह
इस प्रबंध को कोसता है। उसे राजद्रोह के अपराध में गिरफ्तार कर लिया जाता है।
इससे बावर्ची और ज्यादा चिढ़ जाता है। आखिर में उसे फांसी हो जाती है।
नाटक खत्म हो चुका था और रवायत के मुताबिक मुझे उन लोगों को चाय पर बुलाना
था। इस आयोजन को भी मैंने चनाव के नतीजों की तरह ही स्वीकार किया। रतूड़ी ने
कलाकारों का परिचय कराना शुरू किया। आज्ञाकारी छात्रों की तरह उन लोगों ने
बारी-बारी से खड़े होकर नमस्कार किया। एक नाम ने मुझे चौंकाया-
“सर, इसको आप खास तौर से आशीर्वाद दीजिए।" रतूड़ी ने एक मैली, सांवली-सी
लड़की की तरफ इशारा किया, “ये कटोरी देवी है।"
कटोरी देवी?-मुझे नाम बहुत अटपटा लगा और मैं हंस पड़ा। अपनी इस हंसी पर
पछतावा उस वक्त तो मुझे नहीं हुआ।
"इसने रानी का रोल किया था। दयाशंकर की बहन यह रोल कर रही थी पर वो बीमार पड़
गई।" एक अभिनेता ने बताया।
दूसरा उससे भी ज्यादा उत्साह से बोला, “साहब, हम लोग तो घबरा ही गए थे। हमने
कहा, अब भट्ठा बैठा-"
रतूड़ी ने उसे डपटकर चुप करा दिया। बोला, "समस्या तो हो गई थी पर मैंने इस
लड़की से बात की तो ये तैयार हो गई-"
"रोड़े तोड़ती थी सर, रोड़े।" चुप कराया गया अभिनेता डांट भूल गया, "हम लोग
इससे चाय मंगवाया करते थे। एक इसे भी पिला देते थे। गरीब है सर-"
रतूड़ी ने उसे फिर डांटा। कटोरी देवी एक कोने में सिमटी खड़ी थी। वह जब से आई
थी, यों ही खड़ी थी-आम की लकड़ी पर खोदकर बनाई आकृति की तरह थोड़ी खुरदरी,
मटमैली।
नाटक मंडली सदर बाग के एक स्कूल के बाहर चहारदीवारी से घिरी जगह पर रिहर्सल
करती थी। स्कूल के सामने की बहुत टूटी-फूटी सड़क को मजबूत करने के लिए
किनारे-किनारे भारी-भारी गोलाकार पत्थर डाल दिए गए थे। उन्हें तोड़कर सडक पर
बिछाया जाना था। कुछ लोग भारी और लंबी मूठवाले हथौड़े से बड़े पत्थरों को फोड
देते थे। उसके बाद कटोरी देवी कुछ दूसरी औरतों के साथ उंगलियों पर चिथडों की
पट्टियां लपेटे छोटे हथौड़े से उन टुकड़ों को और छोटा करती रहती थी।
मंडली के लोग सामने की गली में बैठनेवाले एक चायवाले से चाय मंगा लेते थे।
चाय की दुकान तक जाने के आलस में अक्सर वे कटोरी देवी को आवाज लगा दिया करते
थे। चाय का यह काम कटोरी देवी बहुत खुशी से करती थी क्योंकि इस तरह उसे खुद
भी एक चाय मिल जाया करती थी। इस बीच भले ही पत्थर तोडनेवाले उसे गालियां दे
लें, वह थोड़ा-सा पूर्वाभ्यास भी बहत उत्सकता से देखती थी।
इसी बीच दयाशंकर की बहन बीमार पड़ गई, उसकी जगह कटोरी देवी का चुनाव महज एक
चुहल थी।
रतूड़ी बताता रहा, "इस लड़की में एक बहुत अजीब बात देखी है। मंच से बाहर यह
सिर्फ पत्थर तोड़नेवाली एक मजदूर लगती है, बिल्कुल बेशऊर, एकदम दब्बू, लेकिन
मंच पर रानी की भूमिका में उतरते ही इसमें जाने कहां से एक खास राजसी दर्प और
निर्भीकता आ जाती है।"
मुझे यह सब विद्रूप ही लगा। मैंने दबी जबान से कहा भी था, "तुम लोग इस लडकी
का भविष्य बिगाड़ दोगे। अब से पत्थर तोड़ने में उसका मन लगेगा नहीं और रंग
जगत् में वह कुछ कर नहीं पाएगी-"
"आप ठीक कहते हैं सर," बातूनी अभिनेता फिर बोलने लगा था, "धोबी का कुत्ता, न
घर का, न घाट का। और सर, ललिता आंखों से जो एक्टिंग करती है, उसका मुकाबला
कहां हो सकता है!"
चुनाव की राजनीति का ज्वर धीरे-धीरे शांत हो गया और मैं दुबारा वही सब करने
लग गया जो कोई भी सत्ता की उम्मीद में बड़े धीरज और समर्पण से करता है। हमारी
पार्टी के अध्यक्ष ने चुनाव के बाद अखवारवालों को बताया था कि वे सत्ता
पार्टी के विरुद्ध संघर्ष करेंगे, उसमें शामिल होने का सवाल ही नहीं। फिर
सहसा एक दिन उनका बयान आया कि देश की बेहतरी के लिए प्रधानमंत्री के हाथ
मजबूत करना जरूरी है। इसके बाद वे पार्टी के कई नेताओं के साथ सत्ता दल में
शामिल हो गए। पार्टी का बचा-खुचा कंकाल मनोज मुखर्जी के साथ मैं उठा लाया। उस
पर बड़े यत्न से संगठन की एक खाल चढ़ाकर हमने उसे खड़ा कर लिया। बहुत जल्दी
इसके एक राष्ट्रीय सम्मेलन की घोषणा भी हमने कर दी। और अब हम उस दूधिये की
तरह तैयार हो गए जो भैंस के मरे बच्चे की खाल लकड़ी और भूसे पर चढ़ाकर दूध
निकालने का इंतजाम पूरा कर लेता है।
अब हम उन समस्याओं को भी खोजने लगे जिन्हें लेकर आंदोलन कर सकें। इस खोज में
हमने बहुत लंबी-लंबी और धुआंधार सैद्धांतिक बहसें कीं। कई बार पास के ढाबे से
उबाली हुई चाय और समोसे आए। एक श्रद्धालु कार्यकर्ता, जो न जाने किस उम्मीद
में हम पर अपनी आस्था बनाए हुए था, हमारे लिए चमड़े जैसी मजबूत पूड़ियां और
बहुत मिर्चवाले उबले आलू लाया। इन्हें चबाते वक्त भी हम गर्मजोशी से बहस करते
रहे। आखिरकार हमें जन आंदोलन के लिए मौजू मिल गया। हमने फैसला किया कि इस देश
की समस्याओं को देखते हुए हमें अश्लीलता के विरुद्ध सिनेमाघरों पर धरना देना
होगा। हमारा खयाल था कि अश्लीलता से चरित्र का पतन हो रहा है इसलिए समस्याएं
सुलझ नहीं रही हैं।
इस आंदोलन में हम लोग जी-जान से जुटे थे। अक्सर तमाशाई हंसने लगते थे। धरने
में शिरकत करनेवाले भी छह-सात से ज्यादा कभी नहीं हो पाए। पर हम इससे
निरुत्साहित होनेवाले नहीं थे।
इसी बीच कटोरी देवी हमें दुबारा मिली। शक्ल से उसे मैं कभी न पहचानता, अगर वह
अपना नाम न बता देती।
उसके साथ शायद वह घटना हो गई थी जिसकी मुझे आशंका थी। जरूर उस नाटक के बाद
उसका मन दुबारा पत्थर तोड़ने में नहीं लगा होगा। कम-से-कम मैंने तो यही समझा।
परिचय देकर वह रोने लगी। फिर बड़े नाटकीय ढंग से चुप होकर मैली धोती से चेहरा
पोंछते हुए उसने बताया कि उसका काम छूट गया है।
पार्टी के अध्यक्ष दौलतराव जब सत्ता दल में गए थे, उनके साथ पार्टी के तीनों
संसद सदस्य और पांचों विधायक भी उसी दल में पहुंच गए थे। इसके बाद से अपनी
समस्याएं लेकर आनेवाले फरियादियों की तादाद एकदम घट गई थी। ऐसे में हमने
कटोरी देवी की बात बहुत गौर और सहानुभूति से सुनी।
"सर साहब, अब आप ही गरीबों की मदद करें।" कटोरी देवी ने यह वाक्य कई बार
दुहराया। मुझे यह वाक्य सुनना बहुत सुखद लगा। बिना यह जाने कि मैं क्या कर
सकूँगा, मैंने उसे आश्वस्त किया कि मैं कुछ न कुछ जरूर करूंगा।
शायद उतने से उसे संतोष नहीं हुआ। उसने इशारतन कहा, "कोई नाटक में काम मिल
जाए-"
"नाटक?" एक क्षण के लिए मैं उसकी बात समझ नहीं पाया।
उसी ने याद दिलाया, "सर हुजूर के लिए रानी बनकर सेवा की थी नाटक में। वैसा
कुछ-"
उसे लग रहा था जैसे मैं उस तरह का नाटक हमेशा करता रहता हूं। लेकिन शायद उसकी
बात ज्यादा गलत नहीं थी। वह अश्लीलता-विरोधी धरना, जिसे मेरा मसखरा साथी
अश्लील धरना कहता था, नाटक से क्या कम था?
"ठीक है, जब कुछ होगा, मैं तुम्हें तुरंत बताऊंगा। अपना पता दे दो।" मैंने अब
पीछा छुड़ाने की कोशिश की।
"पता? सर हजुर, पता क्या, मैं कल आपकी कोठी पर आ जाऊं?" वह बोली।
"कल नहीं, दो-चार रोज बाद। अभी तो मैं थोड़ा-सा फंसा हुआ हूं। बल्कि हफ्ते
बाद मिलो। आज क्या दिन है? सोमवार। तुम अगले मंगल को मिलो।"
आठ दिन मामला टल जाने पर उसे जरूर एक गहरी निराशा हुई होगी। उसके होंठ सिर्फ
कुछ कांपकर रह गए थे। आंखों की हताशा जैसे उछलकर बाहर आ जाना चाह रही थी।
उसने विवशता से हाथ जोड़े और शायद देर तक जोड़े रही। मैं बाकी लोगों के साथ
कॉफी हाउस की तरफ बढ़ गया। हम यहां कॉफी पीकर थकावट ही नहीं उतारना चाहते थे
बल्कि और लोगों पर अपने इस अश्लीलता-विरोधी करिश्मे का असर भी देखना चाहते
थे।
कटोरी देवी के चले जाने के बाद कॉफी हाउस में मुझे एक गलती का एहसास हुआ। हम
लोग तो सचमुच ही उसे तत्काल काम दे सकते थे।
जिस धरने के बार में हमारा ख्याल था कि वह बहुत ऐतिहासिक और क्रांतिकारी
जनांदोलन है, उसमें औरत एक भी नहीं थी। आंदोलन में औरत शरीक न हो तो वह आधे
समाज का ही काम लगता है। हम कटोरी देवी को किसी नाटक में तो नहीं पर अपने
आंदोलन में तो काम दे ही सकते थे। पत्थर तोड़ने की मजदूरी उसे सवा रुपया
मिलती थी। रतूड़ी उसे नाटक के लिए दो रुपए रोज देता था। हम उसे धरने के लिए
दो रुपए और भोजन मुफ्त दे सकते थे। पर वह जा चुकी थी।
कटोरी देवी आठवें रोज आई। घर पर। सुबह। हमारे धरनावाले कार्यक्रम के अब सिर्फ
तीन दिन बाकी थे। तीन दिन के लिए ही सही हमने कटोरी देवी को काम दे दिया। उसे
हमने एक सफेद धोती और ब्लाउज भी दिया ताकि वह एक पेशेवर राजनीति कर्मी लगे।
धरना के लिए पहली वार रवाना होते वक्त उसकी हरकतों में एक हल्का अटपटापन था
लेकिन वह बहुत जल्दी ही समाप्त हो गया। थोड़ी देर बाद ही वह ऐसे व्यवहार करने
लगी जैसे आंदोलनों का उसे पुराना अनुभव हो।
मैं यह कल्पना तो नहीं कर सकता था कि विरोध प्रकट करने की उसकी योग्यता हमसे
ज्यादा होगी पर हमने यह जरूर माना कि अभिनय की प्रतिभा उसमें थी क्योंकि
हमारा खयाल था कि वह जो कुछ भी कर रही थी, वह हमारी हरकतों की अनुकृति ही था।
तीन दिन उसने हमारे धरने को बखूबी निभाया, इसमें शक नहीं। उसने सबसे ज्यादा
अच्छा काम यह किया कि तीनों दिन झंडे, बैनर और खपच्चियों पर जड़ी तख्तियां,
जो हम लोगों की तादाद से कहीं ज्यादा होती थीं, बड़ी सावधानी और सलीके से
सहेजकर रखीं वरना अब तक लोग उन्हें दफ्तर में यों ही पटक जाया करते थे।
आंदोलन खत्म होने के बाद हम सभी का ध्यान कटोरी देवी की तरफ गया।
दौलतराव के सत्ता दल में शरीक हो जाने के बाद, सच तो यह है कि हमें पता ही
नहीं था कि पार्टी मे कहां कौन बचा है। बचे हुए सदस्यों में कहीं कोई औरत भी
होगी, यह हमें नहीं पता था। कटोरी देवी ऐसी स्थिति से हमें उबार सकती थी। वह
दफ्तर का भी बहुत-सा काम कर सकती थी। मसलन उसकी सफाई, चाय-पानी का इंतजाम और
किसी हद तक दफ्तर की ऐसी जरूरियात जिनके लिए पढ़ाई-लिखाई जरूरी नहीं थी। हमने
दो रुपये रोज में भी थोड़ी कटौती कर ली। उसे पचास रुपये महीने और दफ्तर में
रहने की सुविधा देकर हमने संतुष्ट कर दिया।
हो सकता है कि कटोरी देवी पत्थर तोड़ने का काम भी सलीके और लगन से करती हो।
दफ्तर का काम निश्चय ही उसने इस तरह करना शुरू किया कि जैसे वह उसी काम के
लिए बनी हो। एक दिन हमने देखा वह कुछ अक्षर लिखना भी सीख रही है।
रतूड़ी इन दिनों दफ्तर के आंगन में एक नुक्कड़ नाटक तैयार कर रहा था। उसने
कटोरी देवी को अक्षर-ज्ञान कराने का काम खुशी से ले लिया क्योंकि इस तरह मौका
पड़ने पर वह उसके नाटक में भी आसानी से काम कर सकती थी। राजावाले नाटक में
कटोरी देवी को संवाद याद कराने में उसे खासी मुश्किल हई थी।
यहां से कटोरी देवी की जीवनी का एक नया अध्याय शुरू होता है। इस नए अध्याय की
शुरुआत से हम सबको अपनी उदारता और अनुकंपा की सफलता का महिमामंडित अनुभव होने
लगा।
हमें यह गुमान भी हो चला कि हमारी पार्टी सही अर्थो में जनोद्धार कर रही है।
अश्लीलता-विरोधी अपने अत्यंत क्रांतिकारी और सफल आंदोलन से उत्साहित होकर अब
हमने राष्ट्रीय सम्मेलन का फैसला कर डाला। इस फैसले से हम सब बहुत खुश हुए।
हमें लगने लगा जैसे इस सम्मेलन के बाद देश में हम ही हम होंगे। कठिनाई सिर्फ
एक ही थी, दूसरे राज्यों से प्रतिनिधि बुलाने की।
हमें मालूम था कि लगभग हर प्रदेश की हमारी इकाई दौलतराव के साथ चली गई थी।
इसके लिए हमने एक अद्भुत तरीका अपना लिया। हमने अपने शहर से ही बहुत-से ऐसे
लोग बटोरना शुरू कर दिए जिन्हें हम दूसरे प्रदेश के प्रतिनिधि के तौर पर दर्ज
कर सकें। इसके बाद हमने समितियां बनाईं। हर काम हम ऐसे कर रहे थे जैसे
संयुक्त राष्ट्रसंघ का महाधिवेशन हो रहा हो। संयोजन समिति, स्वागत समिति और
प्रबंध समिति से लेकर प्रस्ताव तैयार करने और घोषणापत्र तैयार करने तक की
समितियां हमने गठित कर लीं। प्रचार समिति और प्रकाशन समिति बनाना भी हम नहीं
भूले थे। यह वात अलग है कि इन सभी समितियों में हमारे वही दस-ग्यारह लोग थे
जो अब हमारी पार्टी के कुल सदस्य थे।
इसी बीच पहली बार हमें कटोरी देवी को लेकर एक कड़वा अनुभव हुआ। बल्कि उसकी
वजह से हमें जो असुविधा हुई उसकी प्रतिक्रिया में अनायास ही हमारे मुंह से
निकला : धूर्त हमेशा धूर्तता ही करेगा। सुधरेगा कभी नहीं। हमने सम्मेलन की
स्वागत समिति का अध्यक्ष बहुत परिश्रम से खोजा था-वे थे डॉक्टर मन्नू जी
अग्रवाल। वे एक जमाने में जिला परिषद के अध्यक्ष रह चुके थे। बीड़ी के
व्यापार के अलावा वे ठेकेदारी भी करते थे। हुलिए से वे काफी बड़े नेता लगते
थे क्योंकि उनके साथ हमेशा आठ-दस लोग चलते थे।
मन्नू जी अग्रवाल ने स्वागत समिति का अध्यक्ष बनना सहर्ष स्वीकार किया था। और
अब हमारी कोशिश थी कि वे तैयारी समिति की किसी बैठक में भी शामिल हों।
गड़बड़ी यहीं हो गई।
मन्नू जी अग्रवाल किसी वक्त हमारी गैरमौजूदगी में आए और नाराज होकर वापस चले
गए।
उनकी नाराजगी की पहली सूचना मुझे खुद कटोरी देवी से ही मिली। पार्टी दफ्तर
पहुंचने पर सलीके से पानी मेज पर रखते हुए वह बोली, “अब मैं भी नेतागीरी सीख
रही हूं।"
"ये तो अच्छी बात है। सुराही का पानी ठंडा नहीं है आज।" मैंने कहा।
"सुराही थोड़ी देर से भरी थी इसलिए-"
"देर से क्यों ?"
"वही तो बता रही थी। नेतागीरी में देर हो गई।" कहकर वह हंसने लगी।
"क्या नेतागीरी कर डाली तुमने?" मैंने ऐसे कौतुक से पूछा जैसे कोई बहुत बूढ़ा
आदमी नन्हे बच्चे से बात कर रहा हो।
“सवेरे-सवेरे यहां ठेकेदार आ गया। हिम्मत तो देखिए उसकी। हमारे दफ्तर आ गया।"
वह हंसकर बताने लगी, “आप नहीं जानते, वो वहुत बदमाश है। औरतों पर खराव नजर
रखता है। मैंने तो कह दिया- 'लाला, अब तुम्हारे दरवाजे धरना होगा। बहुत दिन
बीस आने देकर ढाई रुपए पर अंगूठा लगवाया है। सवका सब उगलवाया जाएगा। हमने कह
दिया। इस बार लाला के यहां धरना दीजिए, होश ठिकाने आ जाएंगे। सबसे आगे मैं
धरना दूंगी।"
एकाएक मुझे संदेह हो आया, "कौन आया था? किसकी बात कर रही हो?"
"अरे वही, बदमाश ठेकेदार अगरवाल, मन्नू जी अगरवाल।" वह उत्साह के साथ बोली।
मन्नू जी अग्रवाल के नाम पर मैं सकते में आ गया, “वो आए थे? कब आए थे?"
“सबेरे-सबेरे आया था। मोटर पर। लाठी होती तो पीट-पीटकर मोटर का चूरा बना
देती।"
"देखो, देखो तो इसको!" सहसा मैं उत्तेजना में उठकर खड़ा हो गया, "किसने कहा
था तुम्हें यह बदतमीजी करने को?"
मैं इतनी जोर से चीखा कि वह एकबारगी ही कांप गई। टाइपिस्ट संदीपन शायद अभी तक
कुछ भी सुन-समझ नहीं पाया था। मेरी आवाज पर उसका हाथ जहां-का-तहां रुक गया।
गुस्सा इतना ज्यादा था कि मुझे शब्द ही नहीं मिल रहे थे। फिर भी मैं जो कुछ
बोला, वह कटोरी देवी को जख्मी करने के लिए काफी था।
हमारा फोन पिछले महीने लंबे अरसे से भुगतान न करने की वजह से कटा हुआ था। मैं
फोन के लिए बाहर भागा। फोन पर मन्नू जी मिले नहीं। उनके किसी नौकर ने बताया,
कहीं गए हुए हैं।
'यही होना था। मैं अपने-आप से भुनभुनाया, 'जरूर वे घर पर होंगे पर नौकर से
कहला दिया होगा कि नहीं है। वे मिलेंगे भी नहीं।'
अगर उन्हें मैं मना न सका तो स्थिति बहुत खराब हो जाएगी। उनका नाम तो
पोस्टरों तक में छप चुका था। फोन से निराश होकर मैं दफ्तर लौट आया। कटोरी
देवी उस वक्त बहुत ज्यादा सहमी हुई, सिर झकाए एक बड़ी देग में पोस्टरों के
लिए लेई बना रहे थी।
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