कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
उसे देखकर लगा मैंने गुस्सा सही ढंग से जाहिर नहीं किया। मुझे कछ और ज्यादा
कहना चाहिए था। मगर उबलते हुए दिमाग में सही शब्द फिर भी जुट नहीं पाए। मैं
मेज पर नाहक कुछ कागज उलटने लगा पर उनमें कहीं निगाह जम नही पा रही थी। कटोरी
देवी की वहां मौजूदगी बर्दाश्त से बाहर हो रही थी। आखिर मैं चीखा, "संदीपन,
इस औरत को बोलो यहां से निकल जाए। फौरन। अभी। और अपनी शक्ल न दिखाए। इसके जो
पैसे बाकी हों, कल ले जाए लेकिन दफ्तर के वाहर से। अंदर पैर रखने की जरूरत
नहीं है।"
मैंने देखा, धीरे-धीरे उसका हाथ स्थिर हो गया। देगची में लेई मोटे-मोटे
बुलबुले छोड़ रही थी। पर कटोरी देवी का हाथ रुक गया था। उसने चेहरा नीचे झुका
लिया था और शायद रो रही थी।
मुझे लगा मुझसे थोड़ी-सी ज्यादती हुई लेकिन अब किसी नरमी की गुंजाइश बची नहीं
थी। उस पर तो नहीं लेकिन बीच-बीच में किसी भी बात पर मैं अपना गस्सा ऊंची
आवाज में जाहिर करता रहा। बहुत देर वह उसी तरह बैठी रोती रही, फिर धीरे से
उठकर चली गई। उस वक्त उसने अपनी बाकी तनख्वाह के लिए कोई इच्छा जाहिर नहीं
की। लेकिन पैसे लेने तो वह बाद में भी नहीं ही आई।
कटोरी देवी सिर्फ एक दिन ही और याद रही। इसके बाद सम्मेलन की व्यस्तता में
उसका ध्यान ही नहीं रहा। मन्नू जी के नाराज हो जाने के बाद उन्हें ही नहीं,
पार्टी अध्यक्ष को संभालना भी खासा दिक्कततलब काम हो गया था। पार्टी अध्यक्ष
को चिंतक बनने का भी फितूर था। इस चक्कर में इतने ज्यादा किताबी हो गए थे कि
बिना उद्धरण के कोई बात ही नहीं करते थे और इस तरह पार्टी के घोषणा-पत्र को
उन्होंने एक ऐसी नायाब चीज बना डाला था छपाई जो जा सकती थी, समझी किसी कोण से
नहीं जा सकती थी।
घोषणा-पत्र की तरह हमने पार्टी कार्यक्रम तैयार करने में भी खासा परिश्रम
किया। उसके शीर्षक के नीचे हमने नारा लिखा था-'एक पांव जेल में, एक पांव रेल
में'। इस क्रांतिकारी नारे के बहुत-से उम्दा किस्म के अर्थ हमने निकाल लिए
थे। गोकि यह भी सच है कि रेल में पांव रखने की बात हमने इसलिए सोची थी कि रेल
की तुक जेल से मिलती थी।
इस घोषणा-पत्र और कार्यक्रम को दूर-दूर तक और बहुत सफल ढंग से प्रचारित करने
की योजना बनाई गई थी। यह बात अलग है कि अंततः यह सारा मामला शहर के एक ऐसे
अखबार ने ही छापा जिसकी प्रतियां सिर्फ विज्ञापनदाताओं तक दी जाती थीं। बाकी
अखबारों ने एक पंक्ति भी न छापकर हमारे शब्दों में सेठ और सरकार के प्रति
वफादारी निभाई थी।
कटोरी देवी के बारे में इसके बाद काफी दिन तक हमें कुछ पता नहीं चला। बल्कि
सच तो यह है कि उसे भूल ही गए। वह खुद भी दुबारा हमारे दफ्तर कभी नहीं आई।
हमारी राजनीतिक व्यस्तताएं बहुत बढ़ गई। ये व्यस्तताएं कई किस्म की थीं।
इनमें कुछ सैद्धांतिक उलझनें थीं और कुछ व्यावहारिक।
हमने दो-तीन बार प्रधानमंत्री के पुतले भी जलाए जो पुलिसवालों ने तुरंत बुझा
दिए। एक बार पुतले के साथ हम खुद जलते-जलते बचे। हुआ यह कि जलाए जानेवाले
पुतले को पुलिस बुझा न पाए, इसके लिए हमने ढेर-सा पेट्रोल इकट्ठा कर लिया।
हमारा विश्वास था कि जब तक पुलिस हस्तक्षेप करने की सोचे, पेट्रोल पुतले को
स्वाहा कर डालेगा।
पुतला और पेट्रोल दोनों ही हम काफी यल से छुपाकर ले गए थे। प्रदर्शनस्थल पर
पुतला रखते ही हमने पेट्रोल से भरा टिन उस पर उलट दिया। जल्दबाजी में हमें यह
ध्यान ही नहीं रहा कि पेट्रोल पूरी सड़क पर, हम लोगों के पैरों के नीचे तक
फैल गया। हमने जैसे ही पुतले में आग लगाई, एक तो जोरदार धमाका हुआ और हमने
पाया कि पुतले के साथ हम भी जल रहे हैं। प्रदर्शनकारियों में भगदड़ मच गई।
हमने नागरिक सुरक्षा के परचों में पढ़ रखा था कि आग लग जाने पर आदमी को जमीन
पर लोटना चाहिए। मैं नेतृत्व की प्रतिष्ठा की परवाह किए बिना उछला और आग से
अलग जाकर जमीन पर लोटने लगा। मगर आग बुझी नहीं क्योंकि वह कुरते में नहीं,
पायजामे के पायंचे में लगी थी। पायंचा एक पुलिसवाले ने बुझाया।
इस बीच हमने देखा हमारे अध्यक्ष बहुत फुर्ती से भाग रहे हैं। हड़बोंग में
उनकी धोती की लांग खुल गई थी और हनुमान की दुम की तरह उन्हीं के साथ जलती हुई
भागी जा रही थी।
इस प्रहसन के बाद भी हम हतोत्साहित नहीं हुए। हमें बरावर यह विश्वास होता जा
रहा था कि हम ऐसे मोड़ पर आ गए हैं जहां बहुत जल्दी ही सत्ता-परिवर्तन होगा।
इस परिवर्तन-प्रक्रिया पर ही नहीं, हम सत्ता पर भी काबिज होने के करीब अपने
को देखते थे और हम कहा करते थे कि जनता का भविष्य तभी बदलेगा जब सत्ता
बदलेगी। पार्टी के आंदोलनों में शरीक होनेवालों की संख्या अब हमने छह-सात से
बढ़ाकर पचास-साठ तक कर ली थी। लेकिन सत्ता-परिवर्तन बहुत नजदीक दीखकर भी होने
नहीं जा रहा था।
इसी स्थिति में हमने ध्रुवीकरण की चर्चा शुरू कर दी और ध्रुवीकरण की उम्मीद
में हमने कई पार्टियों को इकट्ठा करने का सिलसिला भी शुरू किया।
इस बीच एक आम चुनाव और निकल गया। जैसी कि लोगों को उम्मीद थी. इस बार भी मैं
हार गया। जमानत ही नहीं जब्त हुई बल्कि मैंने पाया कि मेरा एकमात्र वह वोट जो
मैंने खुद अपने को दिया था, गायब था। दूसरे किसी ने मुझे भले ही वोट न दिया
हो, पर मेरा अपना मतपत्र तो किसी न किसी बक्से से निकलना ही चाहिए था। साफ
जाहिर था कि मतदान में बेईमानी हुई है। इसलिए मैं बड़े जोश के साथ एक दिन की
भूख हड़ताल पर बैठ गया। इस मौके पर मेरे वे पचास-साठ साथी फिर इकट्ठा हो गए।
आठ-दस तख्त जोड़कर एक चबूतरा-सा बना लिया गया था जिसे तीन तरफ से कनातों से
घेरा गया था। साए के लिए एक शामियाना भी ताना गया था। हमारा समूचा श्रोता
समाज इसी चबूतरे पर समा गया था।
हालांकि हमसे किसी तरह की गड़बड़ी की आशंका बेकार थी पर फिर भी थोड़े से
पुलिसवाले शामियाने के बाई तरफ आ खड़े हुए।
अभी अखबारवाले आए नहीं थे और मैं अध्यक्ष के साथ धीमी आवाज में कुछ बात करने
की कोशिश कर रहा था।
मुझे लगा, हमारे तंबू के बाहर बाईं तरफ कनात के पीछे से कुछ ऊंची आवाजें आ
रही हैं। अनुमान सही था। कोई औरत बहुत ऊंची आवाज में गालियां बक रही थी। कुछ
लोग या तो उससे उलझ रहे थे या उसे शांत करने की कोशिश कर रहे थे। मुझे यह
अच्छा नहीं लगा।
"आखिर ये क्या है? कौन है ये?" मैंने खीझकर पूछा।
दो लोग तख्त से उतरकर जाने लगे तभी किसी ने कहा, "कोई नहीं साहब, पागल है।"
मगर आवाज बंद नहीं हुई। मुझे अजीब लगने लगा, “आखिर पुलिसवाले उसे यहां से
हटाते क्यों नहीं?"
"साहब, वो धरना दिए हुए है।" उसी आदमी ने फिर सूचना दी।
"धरना! अब पागल भी धरना देने लगे?" मेरे इस आत्मघाती मजाक पर भी लोग हंसे।
इस बीच एक पत्रकार आ गया। मैं पागल औरत के धरने को भूलकर अपने चुनाव पर बयान
की प्रति उसे दिखाने लगा।
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