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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


तंबू के बाहर उस पागल औरत की आवाज अब और ज्यादा तेज हो गई। कुछ ऐसा लगा जैसे उसकी तरफ से ईंट का कोई टुकड़ा भी फेंका गया। इसके बाद हंसते हुए पुलिसवाले तंबू के दूसरी तरफ आ खड़े हुए।

पत्रकार खरे से मेरी बातचीत में फिर व्यवधान पड़ा। मैं थोड़ा अस्थिर हो आया। इसी बीच खरे धीरे से बोला, "जियो कटोरी देवी!"

"क्या मतलब?" मैं सहसा बौखला गया। मुझे एक क्षण में वह बदतमीज। औरत याद आ गई जिसे मैंने पार्टी दफ्तर से निकाला था। मुझे लगा, जरूर इस बीच पत्रकारों को यह बात मालूम हो गई है कि कई बरस पहले पार्टी के खाते में कटोरी देवी के कुछ रुपये बाकी रह गए थे। जरूर यह पत्रकार उस प्रसंग को लेकर इस वक्त जलील करने की कोशिश कर रहा होगा, मैंने सोचा।

“ये कटोरी देवी क्या है?" मैंने अपनी शंका दबाते हुए सवाल किया।

खरे हंसने लगा, “कटोरी देवी को तो आप जानते होंगे। अरे, बड़ी गजब की औरत है। डेढ़ साल हो गया उसे यहां धरने पर बैठे हुए, डेढ़ साल।"

"धरने पर?"

"हम लोगों ने तो उसके बारे में एक बार छापा भी था। विधानसभा में मामला उठा था। आपकी तो वहुत तारीफ करती है।"

“तारीफ?" मेरे शब्द मेरे हाथ से छूटते जा रहे थे।

"हां साहब। वो तो कहती है, आपने उसके साथ बड़ा उपकार किया।" खरे ने कहा।

यह जरूर व्यंग्य होगा। मैंने सोचा। पता नहीं खरे ने गौर किया या नहीं, मेरे चेहरे पर एक तनाव छा गया।

खरे ने उत्साह से पूछा, “आप तो जानते होंगे उसे-गजब की औरत है। आंधी, पानी, गर्मी, जाड़ा, पुलिस, पी.ए.सी. क्या-क्या उसने नहीं झेला। सामने दीवारें देखिए जो उसने रंग रखी हैं।"

अब मेरा ध्यान गया। सामने की दीवारें खासी ऊंचाई तक गेरू से लिखी इबारतों से ढकी हुई थीं। इन इबारतों में प्रधानमंत्री से लेकर पुलिस, पी.ए.सी. और जिलाधिकारी तक के लिए मां-बहन की फोहश गालियां लिखी हुई थीं। न कोई मुद्दा था, न नारा...सिर्फ गालियां।

वही गालियां वह अभी भी बके जा रही थी। शायद हमारे तंबू के पास पुलिस को देखकर वह सहसा उत्तेजित हो गई थी।

उसकी आवाज पहले ऐसी नहीं थी। शायद डेढ़ बरस लगातार चीखते रहने से उसमें एक घरघराहट-सी आ गई थी जैसे कोई पशु गुस्सा जाहिर कर रहा हो। उसकी उस भर्राई हुई चीख से मुझे लगातार एक बेचैनी होती रही। मुझे लगता रहा कि पुलिस से निबटकर वह कभी भी मेरी तरफ आ सकती है और अपनी उन्हीं मादरजाद गालियों की बौछार मुझ पर कर सकती है।

दोपहर तक तीन पत्रकार और आ गए। हमें अपनी भूख हड़ताल की सफलता का विश्वास हो गया।

इस वक्त तक बहुत बड़े बर्तन में बर्फ डालकर पानी में नींबू निचोड़े जा रहे थे। उनकी गंध से हमें तेज भूख और प्यास लग आई। नींबू का पूरा थैला बहुत जल्दी ही समाप्त हो गया। मगर ठंडे नींबू-पानी से हमें बहुत राहत महसूस हुई। आसमान पर थोड़े से बादल आ गए थे।

कटोरी देवी की गालियां अब थम गई थीं। उत्सुकता होने के बावजूद मैंने उसके बारे में पूछा कुछ नहीं।

शाम पांच बजे हमने एक सभा की घोषणा कर रख थी। यह वक्त कई दृष्टियों से ठीक होता था। भीड़ के लिए दफ्तरों से लौटनेवाले कुछ लोग तो जरूर ही ठिठक जाते थे।

पहले भाषण के साथ ही, हल्की-हल्की बूंदें पड़ने लगीं। तख्त पर बैठे किसी कार्यकर्ता ने कहा-“पानी बरसना शुभ लक्षण है।"

पता नहीं वह शुभ था या नहीं, मगर मैं उस वक्त अचानक घबरा गया जब मैंने देखा, तख्त से नीचे खड़े पच्चीस-तीस लोगों में कटोरी देवी भी आ खड़ी हुई है। बहुत परिश्रम से तैयार किए गए अपने भाषण के सारे वाक्य जैसे मैं भूल गया। शब्दों का सिलसिला बिगड़ गया। जैसे-तैसे भाषण समाप्त करके बैठा तो मेरा चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था। उत्तेजना में मैं यह भी नहीं देख सका कब कटोरी देवी तख्त पर आ गई।

मुझे गहरे पसोपेश में डालते हुए उसने बहुत झुककर मेरे घुटने छुए और उसी भर्राई हुई आवाज में बोली, “आपसे आशीर्वाद लिए बिना नहीं उलूंगी। मुझे पहचाना साहब? मैं कटोरी देवी हूं। आपसे ही सब सीखा है। आपका आशीर्वाद मिल जाए, फिर ये हरामी चाहे बोटियां काटकर फेंक दें, चिंता नहीं।"

भावावेश से या शायद दबाई जाती घबराहट से भरी आवाज गले में फंसने लगी। कोशिश करके आवाज थोड़ी ऊंची करते हुए मैंने कहा, "ठीक है, ठीक है। मेरी शुभकानाएं तुम्हारे साथ हमेशा रहेंगी।"

इतने भर से ही वह बेहद खुश हो गई। लगा जैसे वह थोड़ी खिल गई हो।

अब मैंने देखा, यह शक्ल से एक तीसरी कटोरी देवी थी। पहली वह थी जिसे मैंने अपने कमरे में कलाकारों के साथ सहमी हुई देखा था, धूल खाई हुई एक पुरानी गठरी की तरह। दूसरी वह थी जो हमारे पार्टी दफ्तर में काम करती थी। उन दिनों वह सलीके से बाल धोकर जूड़ा बनाती थी। उसकी खाल में एक उजलापन और चमक दिखाई देने लगी थी।

आज की यह कटोरी देवी बिल्कुल अलग थी। चंद बरसों में ही वह एक बूढ़ी औरत में तब्दील हो चुकी थी। उसके बालों का रंग नकली रेशों की तरह बेआब हो गया था और वे इस तरह बेतरतीब हो गए थे जैसे उन्हें कई तरफ से नोचने की कोशिश की गई हो। खाल का रंग बहुत मैला नहीं था पर उसमें एक अजब शिकन आ गई थी जैसे शरीर का पानी बहुत ज्यादा सूख गया हो।

हां, उसके कपड़े अब हूबहू वैसे ही लग रहे थे जैसे उन दिनों रहे होंगे जब वह पत्थर तोड़ती थी।

"तुमने बहुत हिम्मत दिखाई है। अगर मेरे करने लायक कुछ हो तो बताना।" कहता हआ मैं उसे साथ लिए ही तख्त से नीचे आ गया। हमारे तंबू की बगल में ही उसने अपने धरने की जगह बना रखी थी। वहां एक बहुत सड़ी और टूटी चारपाई थी जिस पर बहुत ज्यादा मैले चिथड़े से इकट्ठा थे। उन चिथड़ों में बहुत-से कागज भी थे जो या तो उसके पोस्टरों के अवशेष थे या मांगपत्रों के कंकाल। साए के लिए चार बांसों पर थोड़ा-सा फूस डाला गया था जो आंधी-पानी की मार से जर्जर हो चुका था। उसे वहां छोड़कर मैं लौट आया। वह नए उत्साह के साथ पहले जैसी ही लय-ताल में वही फोहश गालियां बकने लगी। गालियां देने का उसका ढंग कुछ ऐसा था जैसे वह पारंपरिक स्यापा कर रही हो।

आसमान पर वादल बहुत गहरे और सुरमई हो गए थे। खासी नम और ठंडी हवा सड़क पर लोट-लोटकर दौड़ रही थी। थोड़ी ही देर में पानी ज्यादा बरसना शुरू हो गया। शिद्दत की गर्मी से राहत पाकर हम खुश हो गए। नीचे खड़े लोगों में से कुछ तख्त पर सिमट आए, बाकी चले गए।

बिजली की बहुत जोरदार कड़क के बाद पानी एकदम तेज हो गया। तंबू के ऊपर पानी बहुत जल्दी ही जमा होने लगा और हमने पाया कि हवा के झोंकों के साथ आनेवाले पानी से ही नहीं, तंबू से गिरनेवाली धारों से भी हम भीगने लगे।

अब हम सभी तंबू के पानी को रोकने में व्यस्त हो गए। भीगने में तो सख ही मिल रहा था पर डर यह था कि शामियाने के ऊपर ज्यादा पानी इकट्ठा हो गया तो वह नीचे आ गिरेगा।

बारिश बहुत ज्यादा तेज हो रही थी। तंबू के बाहर थोड़ी दूर पर भी कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। हमारी तरफ मुख्य सड़क का ढाल होने के कारण जमीन पर भी पानी भरता जा रहा था।

बहुत देर बाद ही हमें याद आया कि तख्त से नीचे करीब एक फुट भर पर बहुत गंदले पानी में हम सबके जूते-चप्पल पड़े थे। घबराकर हम सभी लगभग एक साथ ही अपने-अपने जूते खोजने लगे। वहां नहीं थे। तेजी से आए पानी के पहले बहाव में ही दूर जा निकले थे और अब उन्हें खोज पाना लगभग असंभव था।

अब हमें यह भी लगने लगा कि यहां इस तरह रात गुजार पाना भी संभव नहीं होगा। बारिश जिस ढंग से हो रही थी, उससे यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता था कि वह थमेगी नहीं।

पार्टी का एक कार्यकर्ता, पार्टी अध्यक्ष, मेरे और कुछ दूसरे नेताओं के लिए सुरक्षित जगहें सुझाने लगा।

रात होने तक बारिश तेज ही हुई, कम नहीं हुई। पार्टी के नेता घुटनों तक पानी में चलकर पड़ोस के एक व्यवसायी के घर आ गए। मकान का वह हिस्सा व्यवसायी के अतिथियों के ठहरने के काम आता था। खासी आरामदेह जगह आने के बाद अब हमें तेज भूख का एहसास हुआ।

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