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मुद्राराक्षस संकलित कहानियां

मुद्राराक्षस

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7243
आईएसबीएन :978-81-237-5335

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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...


कैनवस के बने ये तीन थैले ज्यादातर मोटरों के पुराने घिसे-टूटे पुरजों से भरे हुए थे। इन्हीं पुरजों में से कई को वह औजरों की तरह भी इस्तेमाल में लाता था। अपने औजारों और पुरजों की दुनिया उसने इस तरह फैला ली, जैसे भारी-भरकम चीर-फाड़ से पहले कोई सर्जन करता है। उसके औजारों को देखकर कोई भी कह सकता था कि बावजूद इसके कि वह एक निहायत आधुनिक मशीन सुधारता था, पर औजारों की नजर से काफी हद तक प्रस्तरयुगीन प्राणी ही था। उसके कुछ औजार तो निश्चय ही कुछ दिनों बाद अजायबघरवालों के लिए दुर्लभ वस्तु हो जानेवाले थे। मसलन उसका हथौड़ा। टूटे हुए एक्सिल का कोई चार-पांच इंच लंबा टुकड़ा उसने एक क्रॉस की शक्ल में बांस के टुकड़े को फाड़कर अटका लिया था। फटे बांस के बीच अटके लोहे के इस टुकड़े को उसने तार, सुतली और डोरियों से खूब कसकर लपेट दिया था। मूठ चुभे नहीं, इसलिए उसने साइकिल की पुरानी ट्यूब का एक टुकड़ा उस पर चढ़ा दिया था। आदिम युग के आदमी और इस मिस्तरी के बीच रबर का यह टुकड़ा इतिहास के लंबे फासले की गवाही दे रहा था।

उसके औजारों का अजायबघर देखकर मुझे खासा धक्का लगा, "तुम इन्हीं औजारों से काम करते हो?"

उसने औजार सजाना छोड़कर मेरी तरफ ऐसे अचंभे से देखा, जैसे वह कोई बड़ा गवैया हो और मैंने उसके सुरताल पर संदेह किया हो।

"देखिए साहब!" वह गंभीर होकर बोला, “काम समझ-बूझ और कारीगरी से होता है, औजारों से नहीं।"

उसने यह बात शेख सादी की किताब से नहीं उद्धत की थी, लेकिन उसकी विश्वसनीयता उतनी ही थी, जितनी गुलिस्तां या पंचतंत्र के सुभाषित की हो सकती है।

उसने बात ठीक ही कही थी। मैं थोड़ा लज्जित हो आया। फिर अपने को संभालते हुए मैंने कहा, “तुम्हारी बात सही है, लेकिन अच्छे औजार हों, तो काम में आसानी हो जाती है। और फिर हथौड़ा कोई ज्यादा महंगी चीज तो है नहीं।"

उसने औजार बनानेवाली एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनी का नाम लिया, "मेरे पास सारे औजार उसी के थे। देसी औजारों से मैं काम नहीं करता। लेकिन आप नहीं जानते, यहां लोग बहुत चोर हैं। औजार चुरा लेते हैं। हथौड़ा चुरा लिया, पेचकस चुरा लिया। मेरे पास बहुत उम्दा प्लास था, वो भी चुरा लिया हरामियों ने।"

"किसने चुरा लिया?"

“अरे आप नहीं जानते, ये मैकेनिक बड़े हरामी होते हैं। औजार तो देखते-देखते चुरा लेते हैं। इसीलिए अब मैं अच्छे औजार नहीं रखता।" उसने कहा और अंतिम थैले से भी कुछ सामान निकालकर सजाने लगा।

शायद उसकी बातों से उकताकर या उसकी बातों से पैदा होती उलझन दबाने के लिए मैंने कहा, "अच्छा, तुम काम करो मैं आता हूं।"

“आप फिक्र न कीजिए साहब! इत्मीनान से अपना काम कीजिए।" उसने कहा।

अंदर आने के बाद बहुत देर तक कुछ ठोंके-पीटे जाने की आवाजें मैं सुनता रहा। इसके बाद वे आवाजें बंद हो गईं।

इस बीच मेरी बीवी को दूसरी चिंता होने लगी। उसका विश्वास था कि यह आदमी जरूर कोई घिसा हुआ चोर भी होगा। उसने बहुत विश्वास से कहा, "ये ठीक है कि वो मैकेनिक है, मगर किसी की नीयत का क्या भरोसा? स्टेपनी ही लेकर चल दे तो?"

उसने अपना एक पुराना अनुभव फिर सुना दिया। इसे वह पहले भी कई बार सुना चुकी थी। हर महीने वह मेरे अखबारों और खाली बोतलों के अलावा कुछ डिब्बे-डिब्वियां कबाड़ियों को वेचती थी। उसका विश्वास था कि कबाड़ी तोल में गड़बड़ी करते हैं। इसलिए मोटर पर लोहामंडी का चक्कर लगाकर उसने एक बढ़िया तराजू और वांट खरीद लिए थे। इस तराजू से वह बहुत होशियारी के साथ एक-एक पन्ने की अदला-बदली करके अखबार पहले ही तोल लेती थी। इसके बाद बिना तोल बताए वह कबाड़ियों का इम्तहान लेती थी, “इसे तोलो। देखो कितना है!"

जाहिर है, रद्दीवाला तीस किलो रद्दी को पंद्रह किलो बताता था। तब उसे डांटा जाता था, "तुम लोग वहुत बेईमान होते हो। ये पंद्रह किलो है?"

"तब कितनी है?"

"ये तीस किलो है। मैंने तोल रखी है।"

इस पर हारकर कबाड़ी कहता था, “अच्छा, अभी आता हूं। थैला ले आऊं।" इसके बाद वह लौटकर नहीं आता था। धीरे-धीरे ज्यादातर कबाड़ी यह जान गए थे कि इस घर में अखबार पहले ही तोल लिए जाते हैं। तब वे भाव ही कम बताने लगे। चार के बजाय वे लोग दो रुपए पर आ गए।

इस झिक-झिक का मैं बहुत पुराना गवाह था। झंझट कम करने की नजर से मैंने सुझाव दिया था कि कबाड़ी को अपना तराजू-बांट दे दिया करो और उससे अपने सामने ही रद्दी तुलवा लो। इस पर वह नाराज हो गई थी, “आपको कुछ नहीं पता। ये लोग चोर होते हैं। तराज-बांट गायब कर देंगे।"

इसके बाद उसने अपनी मां का एक किस्सा सुनाया। जाहिर है, उसकी मां भी रद्दीवाले के साथ इसी तरह पेश आती होगी। किस्सा यूं है कि एक बार उसकी मां के घर पर उन्हीं की तराजू से रद्दी लेने के बाद रद्दीवाले ने कहा, "मेम साहब, मैं अपना सामान यहां रखे जा रहा हूं। जरा तराजू दे दीजिए, पड़ोस की कोठी में रद्दी तोलकर अभी दे जाऊँगा।" तराजू और बांट लेकर गया रद्दीवाला दोबारा कभी वापस नहीं लौटा। बहुत देर के बाद उसका थैला देखा गया, तो उसमें थोड़े से चिथड़े थे और एक जोड़ा फटे जूते। इस किस्से को मेरी बीवी मेरे तर्कों के विरुद्ध ब्रह्मास्त्र की तरह इस्तेमाल करती थी।

इस किस्से से आक्रांत होकर मैंने बाहर की ठोंक-पीट सुनने की कोशिश की। वहां एकदम सन्नाटा था। सहसा मुझे भी आशंका हो गई। मैंने बाहर का परदा थोड़ा-सा हटाकर खिड़की से झांका। वह आदमी फर्श पर बैठा किसी चीज को प्लास की मदद से मरोड़ने या सीधा करने में जुटा था।

बीवी की तमाम झिड़कियों के बावजूद बाहर बैठकर उस आदमी की निगरानी करना मुझे ठीक नहीं लगा। सच तो यह है कि इतनी देर में मानव-मनोविज्ञान में उस आदमी की पैठ का मैं इतना कायल हो गया था कि मुझे लग रहा था, अगर उसने मुझे आसपास मंडराते देखा, तो मेरी नीयत का भेद खोल देगा।

मैं दोबारा परदा खींचकर खिड़की से हट गया। लेकिन और किसी काम में व्यस्त नहीं हो पाया। मैं, दरअसल, अब मानव-मनोविज्ञान के दो योद्धाओं के बीच धक्के खा रहा था। एक तरफ मेरी नितांत अनुभवी बीवी और दूसरी तरफ घाघ किस्म का मोटर मैकेनिक। मैं अपनी बीवी को यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहा था कि मैं मैकेनिक की निगरानी मुस्तैदी से कर रहा हूं और मैकेनिक को आभास नहीं होने देना चाहता था कि मैं ऐसा कर रहा हूं।

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