कहानी संग्रह >> मुद्राराक्षस संकलित कहानियां मुद्राराक्षस संकलित कहानियांमुद्राराक्षस
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कथाकार द्वारा चुनी गई सोलह कहानियों का संकलन...
"फिक्र न करिए साहब। मैंने इंतजाम कर दिया है। ये तो गल गया था। बस टूटने ही
वाला था।" उसने बताया कि शीशा गिरने से रोकने के लिए उसने अंदर एक ईंट का
टुकड़ा अटका दिया है। आसपास कपड़ा लूंस दिया है, इसलिए वह हिलेगा नहीं, "और
फिर देखिए, मैं तो हूं ही। कोई शिकायत हो, मुझे बताइएगा।"
उसकी बात पर यकीन करने के अलावा और कोई उपाय नहीं था। मोटर और बीवी दोनों के
ही बारे में मेरी समझ धोखा खाती रही है।
“पैसे कितने हुए?"
"अरे साहब, इतना छोटा-सा काम, मैं इसका क्या ले लूं आपसे? चलिए, पचास दे
दीजिए।"
“पचास! हद करते हो तुम! ये पंद्रह रुपए का काम है ज्यादा-से-ज्यादा।" दरअसल,
मैं अपनी बीवी से सीखी हुई चाल चलने की कोशिश कर रहा था। मेरी बीवी का खयाल
था कि कोई चीज खरीदते वक्त या किसी को उसके काम का पैसा देते वक्त मैं सही
ढंग से हुज्जत नहीं करता और ठगा जाता हूं। मैंने हुज्जत करने का फैसला कर
लिया था।
मगर वह मिस्तरी अजब बदमाश चीज निकला। एकदम तेवर बदलकर बोला, "साहब, मैं
भाव-ताव करनेवाला आदमी नहीं हूं। उम्दा काम करता हूं और वाजिब दाम लेता है।
आपको लगता है, मैं ज्यादा मांग रहा हूं, तो आप कुछ न दीजिए। मैं जाता हैं।"
उसने अपना सामान समेटना शुरू कर दिया। बहुत मुश्किल से वह पचास के बजाय
पैंतालीस पर राजी हुआ। अब समस्या बीवी से पैंतालीस रुपए निकलवाने की थी। मुझे
मालूम था, वह सुनते ही भड़क जाएगी, "पैंतालीस रुपए! उसने कहा और तुमने मान
लिया होगा!"
इस जिरह से बचने के लिए अंदर आकर मैंने कोशिश भर नाराजी जाहिर करते हुए कहा,
“बेईमान साला, जरा-से काम के सत्तर रुपये मांग रहा था...।"
“सत्तर रुपये!" बीवी एकदम उठ खड़ी हुई। मैं डर गया कि कहीं सीधे मिस्तरी पर
ही न टूट पड़े और मेरा भेद खुल जाए। मैंने फौरन जोड़ा, "मगर मैं उसे पैंतालीस
दूंगा। इससे एक पैसा ज्यादा नहीं दूंगा।"
"पैंतालीस!"
"इतना तो ज्यादा नहीं है। गैराज ले जाता, तो अकील इसी काम के सत्तर-अस्सी तो
लेता ही।"
“अकील की बात दूसरी है। चलो दे दो।" वह उदासीन होती हुई बोली, “काम ठीक कर
दिया है?"
"हां, बना तो ठीक ही दिया है।"
वह आदमी पैंतालीस रुपए लेकर दोबारा आने का वायदा करके चला गया।
इसके बाद से मेरी मुसीबतों का सिलसिला और लंबा हो गया। दरवाजे का ताला पहले
से ज्यादा खराब हो गया और एक बार शीशा जो अंदर घुसा, तो बाहर ही नहीं आया।
हैंडल कुछ दिन तो हिलता रहा, उसके बाद एक दिन हाथ में आ गया। जिस दरवाजे में
कोई गड़बड़ी नहीं थी, वहां आगे भी कुछ न हो, इस आश्वासन के साथ उस आदमी ने जो
ठोंक-पीट की थी, उसका नतीजा यह हुआ कि वह भी झूलने लग गया।
दरवाजों की इस गड़बड़ी को मैंने कई रोज छुपाने की कोशिश की। बायां दरवाजा
अंदर से मुश्किल से खुलता था, इसलिए नाटकीय सेवा प्रदर्शित करते हुए मैं
गाड़ी रोकते ही उतरकर बायां दरवाजा किसी आज्ञाकारी शोफर की तरह बीवी के लिए
बाहर से खोल देता था। पर एक दिन भेद खुल ही गया। बायां दरवाजा बाहर से भी
नहीं खुला। हैंडल पहले ही गायब था, अब अंदर का लीवर भी कहीं दुबक गया। बीवी
को सीटें लांघकर उतरना पड़ा, तो वह मिस्तरी पर नहीं, मुझ पर बिगड़ गई,
“तुम्हें तो पैसे की बरबादी का शौक है।"
एक समझदार पति को सरेआम पत्नी की झाड़ खाने और स्वाभिमान बनाए रखने का तरीका
मालूम होता है। मैं उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल करता रहा, यानी कभी झुककर नाहक
जूते का तस्मा खोलता-बांधता था, कभी मुंह ऊपर किए हुए इस तरह टहलने की कोशिश
करता था, गोया मैं इत्तफाक से ही किसी जोर से बोलनेवाली महिला के आसपास हूँ।
वैसे मेरा उससे कोई संबंध नहीं है।
वापसी में मैं गाड़ी सीधे गैराज ले गया। अकील हमेशा की तरह एक गाड़ी के नीचे
लेटा हुआ था। मुझे देखकर बाहर आया। मेरी मोटर के दरवाजे देखकर उसने अजीब-सा
चेहरा बनाया, “ये आपने दरवाजों के साथ क्या किया है?"
मुझसे पहले मेरी बीवी बोली, "इनसे पूछिए। ये पता नहीं किसको पकड़ लाए। पैसे
भी ले गया और दोनों दरवाजे चौपट कर गया।"
अकील हंसने लगा। बाहर-भीतर से दरवाजे की दुर्दशा देखता हुआ बोला, "आपने भी हद
कर दी। ऐसी क्या जल्दी थी? आखिर वो था कौन मिस्तरी?"
मेरे बोलने की जरूरत नहीं पड़ी। वैसे भी मुझे उस आदमी का नाम तक नहीं मालूम
था। बीवी ने उसका जो शब्दचित्र खींचा, वह इतना प्रामाणिक था कि अकील फौरन
पहचान गया, “अरे वो चिरकुट!"
"चिरकुट?"
"हां, हम लोग उसे चिरकुट कहते हैं। साला जिस दिन मरेगा, उसी दिन नहाएगा।"
अकील ने कहा।
उसका मैकेनिक रियासत बोला, “साले को एक दिन बहुत मारा था मैंने।"
अकील ने और ज्यादा मजे लेकर उसकी पिटाई का ब्योरा दिया, "जानते हैं? साला
बिना फुएल पाइप खोले खन्ना साहब की मोटर की चेसिस जुड़वा रहा था। मोटर में आग
लग जाती। साला रोता हुआ भाग गया था।"
मोटर के दरवाजे ठीक हो गए। इस बार अकील ही ने पूरे तीन सौ रुपए लिए। बीवी ने
अकील को नहीं, मुझे ही एक बार फिर इस अपव्यय का दोषी ठहराया।
इसके बाद एक दिन चिरकुट फिर आया। उसे देखते ही मैं चिल्ला पड़ा, "फिर आ गए
तुम? भाग जाओ बरना बहुत मारूंगा। सारे दरवाजे चौपट करके रख दिए।"
"अरे साहब, ऐसा कैसे हो सकता है? जो गड़बड़ी हो, बताइए, मैं ठीक करूंगा।"
"नहीं। हाथ नहीं लगाने दूंगा। भाग जाओ यहां से।"
वह आदमी झेंपता हुआ साइकिल पर बैठा और चला गया। मैं उसके अनाड़ीपन के किस्से
लोगों को सुनाता रहा और मेरी बीवी मेरे भोंदूपन की कहानियां आने-जानेवालों को
सुनाती रही।
इसके बाद एक बार मेरी मोटर एकदम रुक गई। सेल्फ फंस गया। अकील ने बता रखा था
कि सेल्फ फंस जाए, तो मोटर गियर में डालकर आगे-पीछे हिलाइए। मैंने हिलाया।
सेल्फ फंसा का फंसा ही रहा। हारकर मैंने मोटर-स्टैंडवालों से पूछा, "आसपास
कोई मोटर मैकेनिक होगा?"
"हां, हैं तो, मगर अभी काम नहीं करेंगे।"
"क्या मतलब?"
"क्या पता। कोई हड़ताल चल रही है।" स्टैंडवाले लड़के ने कहा।
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