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उपन्यास >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


आज मेरा मन हो रहा है कि टी एस सी के मोड़ पर खड़े होकर, सबको सुना-सुना कर ऐलान करूँ-'आज मेरे लिए बेहद खुशी का दिन है।' सच्ची, आज, बहुत बड़ी खुशी का दिन है। आज मेरे प्यार ने मुझे ख़त लिखा है। इससे बढ़ कर खुशी और कोई नहीं; मेरी ज़िन्दगी में इससे बड़ी आकांक्षा और कुछ नहीं! आज मैं सार्थक हो गयी। मेरी उन्नीस साला ज़िन्दगी में, आज यह पहली सफलता है। दीर्घ-दीर्घ दिनों का एक सपना आज पूरा हुआ। अर्से से अँधेरे में पड़ी ज़िन्दगी ने आज पहली बार उजाले का मुँह देखा! किसी बन्द कोठरी का दरवाज़ा, काफ़ी-काफ़ी दिनों बाद, अचानक पूरी तरह खुल गया। आज दुनिया भर की रोशनी-हवा लहरा कर मेरे अन्दर घुस आयी है।

शनिवार आने में तो अभी भी पूरे चार दिन बाक़ी हैं। शनिवार को मैं उसके पास जाऊँगी। शनिवार को वह क्रिसेन्ट लेक के किनारे, मेरा इन्तज़ार करेगा। उस दिन मैं क्या पहनूँगी? मेरी सबसे सुन्दर ड्रेस कौन-सी है? एक तो बिल्कुल नयी ड्रेस है, दर्जी के यहाँ से आज ही आयी है, जो मैंने अभी तक अपने बदन पर नहीं डाली है, चलो, वही पहन लूँगी वैसे पहले पहन कर देखना होगा कि अब ड्रेस में मैं कैसी दिखती हूँ। कान में ईयरिंग पहनूँ? सोने के? या कपड़ों के रंग से मिलते-जुलते नगों के गहने? होटों पर गाढ़ी लिपस्टिक लगाऊँ या हल्की? दोपहर का वक़्त है, शोख मेकअप नहीं किया जा सकता। हल्के-से फाउण्डेशन पर हल्का-सा फेस-पाउडर ही चलेगा। मेरे पास सजावट की चीजें नहीं थीं। मेरी जेठू बहन की शादी तो साल भर पहले ही हो चुकी है। गिफ़्ट में मिले, ढेरों मेकअप-बॉक्स में से, एक बॉक्स उसने मुझे दे दिया था।

माँ ने हिदायत दी, 'यह सब ज़्यादा मत लगाना, त्वचा चौपट हो जायेगी।'

मैंने कभी नहीं लगाया। लगाने की कभी ज़रूरत भी महसूस नहीं की। लेकिन शनिवार को ज़रा सगूंगी नहीं? न्ना, थोड़ा-बहुत साज-सिंगार तो करना ही होगा।

अच्छा, बाल किस स्टाइल का बनाऊँ ? चोटी बना लूँ या बाल खुले-खुले छोड़ दूं? वैसे चोटी बनाऊँ, तो मेरे पास लाल रंग का सुन्दर बैंड भी है, वही बाँध लूँगी। आँखों में काजल लगाऊँ? बिन्दी भी लगा लूँ? वैसे बिन्दी लगा कर, ऐसा लगेगा, जैसे मैंने कुछ ज़्यादा ही बनाव-सिंगार किया है। मंसूर को क्या पसन्द है, कौन जाने? मुझे तो, हल्की-फुल्की सजावट ही भली लगती है। मेरी सैण्डल का फीता ढीला हो गया है। काश माँ से कह कर अगर आज ही एक जोड़ी सैंडल खरीद पाती, तो मज़ा आ जाता। यह तो हुई मेरे साज-सिंगार की बात! लेकिन मैं उससे बात क्या करूँगी? लेक-किनारे बैठ कर गपशप क्या करूँगी? ज़िन्दगी भर की सारी बातें, क्या एक दिन में कही जा सकती हैं? अच्छा, मैं क्या खाली हाथ जाऊँ? नहीं, खाली हाथ जाना ठीक नहीं लगेगा। उसके लिए रजनी गंधा या गुलाब ले जाया जाये। काश, मैं जान पाती कि उसे कौन-से फूल पसन्द हैं? वैसे गुलाब क्या कोई नापसन्द कर सकता है? या बेहतर यह रहेगा कि दोनों हाथों में गुलाब भर कर ले जाऊँ?

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