उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
|
10 पाठकों को प्रिय 235 पाठक हैं |
तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
रिक्शा ले कर, मैं 'मालंच' आ पहुँची। पूरे दो सौ रुपयों के फूल खरीद डाले। गुलाबों को सजाने में दुकानदार ने काफ़ी वक़्त ले लिया। अब, मैं रिक्शा लूँ या स्कूटर? सवा ग्यारह बज गये, रिक्शा ही ले लूँ। मंसूर ज़रूर दूर से ही मुझे आते हुए देख लेगा। मैं क्या असुन्दर दिख रही हूँ? मैंने आईने में अपने को देखा, यह पोशाक मुझ पर, काफ़ी सूट कर रही है, पाँवों में चप्पल भी खूब अँच रही हैं। मंसूर समझ जायेगा कि लड़की में खासा रुचिबोध है।
रिक्शा शाहबाग़ पार करके, एलिफैण्ट रोड होते हुए, धानमण्डी आ पहुँचा। शिमुल के यहाँ से तस्वीर नहीं ले सकी। बिचारी के पिता का इन्तक़ाल हो गया और तस्वीर अधूरी छोड़ कर, वह चली गयी। केलाबाग़ान, शुभानबाग़ पार करके, रिक्शा तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है। मेरे अन्दर मानो कोई सर्द चीज़ बार-बार हिल-डुल उठती है। लेकिन अपने साहसी होने का भी एहसास हो आया है। इसी तरफ़ ख़ाला का भी घर है। अगर किसी जान-पहचान वाले ने मुझे देख लिया, कि दिन के बारह बजे मैं यूनिवर्सिटी की उलटी दिशा में कहीं जा रही हूँ और उसने अब्बू या माँ को खबर कर दी, तो मेरी खैर नहीं। यूँ भी भाई के मामले में ऊपर से चाहे जितनी भी उदारता दिखा रहे हों, अन्दर-ही-अन्दर भयंकर क्रुद्ध हैं। तुलसी को इन लोगों ने अपने घर में भले शामिल कर लिया हो, मगर उसे फ़रज़ाना बनाये बिना नहीं मानेंगे। माँ का जो स्वभाव है, लगता है कि नमाज़-रोज़ा पाठ पढ़ा कर ही मानेंगे। उसके बाद, अड़ोसी-पड़ोसी, आत्मीय-स्वजनों के घर-घर जा कर यह प्रचार कर आयेंगे कि फ़रज़ाना तो पाँचों वक़्त नमाज़ पढ़ती है, सारे रोज़े रखती है। कोई नहीं चाहता कि उनका सामाजिक आसन डगमगाए। लगता है कि भाई भी अपने परिवार और समाज से समझौता करते हुए चल रहे हैं। लेकिन प्यार में कोई समझौता क्यों हो? अबाध और शर्तहीन प्यार क्यों न हो? प्रेम को तो तमाम जंजीरों से मुक्त रहना चाहिए। मेरी समझ से प्रेम का मतलब है आपस में प्रबल प्यार, एक-दूसरे के प्रति अटूट विश्वास! प्रणयी युगल एक-दूसरे के सपनों और सम्भावनाओं में बाधक नहीं, प्रेरणा बनें।
मंसूर के प्रति मेरे मन में विश्वास जन्म ले चुका है। वह ज़रूर मेरी अपेक्षाओं और आकांक्षाओं का सम्मान करेगा। मंसूर के लिए मैंने फूल ख़रीदे हैं। अब्बू से कल सुबह ही मैंने तीन सौ रुपये।
अब्बू ने पूछा, 'अचानक इतने सारे रुपये किसलिये?'
'जरूरत है! डिपार्टमेंट में एक कार्यक्रम होनेवाला है, चन्दा देना है।'
अब्बू ने तीन सौ रुपये दे दिये।
मैं कभी झूठ नहीं बोलती, लेकिन कल बोलना पड़ा। और कोई उपाय भी क्या था? मंसूर के लिए मैं कुछ भी ले कर न जाऊँ, फूल भी नहीं, इसकी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती। इसलिए लाचारी में अब्बू से झूठ बोलना पड़ा। कहने को तो मैं सच बोल सकती थी, लेकिन तब रुपये नहीं मिलते।
|