लोगों की राय

उपन्यास >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

235 पाठक हैं

तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


क्रिसेन्ट लेक की तरफ़ रिक्शे आने-जाने की मनाही है। मैं मोड़ पर ही उतर गयी। मुझे कहीं डर भी लग रहा है, दोपहर के वक़्त इस जगह, काफ़ी सन्नाटा रहता है। इस तरफ़ यूँ अकेली-अकेली मैं कभी नहीं आयी। पता नहीं, इतना साहस करके, मैंने कोई भूल की है या नहीं। कई-कई लोग मुझे घूर रहे हैं, कई हमउम्र लड़के-लड़कियाँ मेरी ओर देख-देख कर हँस भी रहे हैं। मैं उन सबकी निगाहें घुमा कर, सीधे अपनी राह चलती रही। मेरी नज़रें नीली होण्डा सिविल कार खोजती रहीं, नीला आसमान, नीली गाड़ी, मैं, मंसूर...यह सब सोचते हुए भी काफ़ी भला-भला लग रहा है।

पैदल चलते-चलते मैं काफ़ी दूर चली आयी। मैं दाहिने-बायें तलाश करती रही। नीली गाड़ी कहीं नहीं थी। घड़ी में कुल बारह बज कर दस मिनट हुए थे। मैं काफ़ी पहले पहुँच गयी थी। मैं आगे बढ़ती रही, लेक की सीढ़ियों पर अग़ल-बग़ल कई जोड़े बैठे हुए। ज़रा दूरी रख कर, मैं भी वहीं बैठ गयी, क्योंकि साढ़े बारह बजे तक मुझे इन्तज़ार करना होगा। मूंगफली बेचने वाले को बुलाकर, मैंने दो रुपये की मूंगफली भी ख़रीद ली। मेरे मन में कहीं यह ख़ौफ़ भी समाया हुआ था कि अगर कोई मुझे यूँ अकेली-अकेली बैठी देखे, तो शायद पागल-छागल ही समझ ले। खैर, जो समझना है, समझे! मंसूर आ जाये, तो सारा झमेला ही ख़त्म हो जायेगा।

मेरी निगाहें बार-बार घड़ी पर जा ठहरती हैं।
वैसे इस जगह मैं पहले भी दो बार आ चुकी हूँ।

...भाई ही हमें ले कर आये थे। साथ में सेतु-सेवा भी थीं, उन दोनों ने चटपटी खाई थी, मैंने और भाई ने गोलगप्पे! भाई का मूड अच्छा होता था. तो हमें साथ ले कर. इसी तरह सैर-सपाटे पर चल पड़ते थे। ज़्यादातर मुझे साथ ले कर सैर पर निकल पड़ते थे।

....एक बार, काफ़ी छुटपन में, भाई साईकिल चलाना सीख रहे थे।

उन्होंने मुझसे कहा, 'आ, साईकिल पर बैठ जा।'

मैं महाखुश!

वे साईकिल चलाते रहे...चलाते रहे। अचानक साईकिल उलट गयी।

मेरे हाथ-पैर छिल गये। वे मुझे ले कर घर लौटे और अपने तथा मेरे घावों पर, बड़े जतन से डेटॉल लगाया। माँ ने अब्बू को कुछ नहीं बताया।

लेक का पानी कितना स्वच्छ है! मुझे तैराकी नहीं आती, मंसूर को ज़रूर आती होगी! ऐसे स्वच्छ पानी में अगर मंसूर और मैं, तैरने उतरें, तो क्या हालत होगी, यह ख़याल आते ही मुझे बेभाव हँसी आने लगी। चलो, ठीक है! मंसूर मुझे तैरना सिखा देगा।

वह कहेगा, 'दाहिना हाथ फैलाओ, अब पैर चलाओ।'

तैरने की कोशिश में, ढेरों पानी-वानी पी कर, मेरी कैसी बरी हालत हो जायेगी। मंसूर बेतरह परेशान हो उठेगा। धत्! मंसूर को परेशान-हाल देखने का, मेरा बिल्कुल मन नहीं चाहेगा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book