उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
साढ़े बारह बज गये! पौने एक बजा! एक भी बज गया। मैं बेचैन हो उठी। सीढ़ियों पर बैठे-बैठे, पेड़ से टिके-टिके, टहलते-टहलते, मैं उसी का इन्तज़ार करती रही।
उसी समय, बायीं तरफ़ से एक नीली गाड़ी आ कर, कुछ दूर पर रुक गयी। मंसूर गाड़ी से नीचे उतरा। उतरते ही वह मुझे देख ले, कहीं ऐसा न हो कि मैं उसे नज़र न आऊँ और वह लौट जाये-यह सोच कर, लगभग दौड़ कर, मैंने आपस की दूरी कम कर डाली।
मंसूर गाड़ी से टिका-टिका आस-पास खोज भरी निगाहों से देखता रहा, मैं उस तक पहुँच कर, विल्कुल आमने-सामने जा खड़ी हुई।
अपना सनग्लास उतार कर, वह मुस्कराने लगा।
मैंने उसे फूलों का गुच्छा थमा दिया।
फूल लेते हुए मंसूर ने कहा, 'चलो, गाड़ी में बैठो।'
वह खुद ड्राइव कर रहा था। उसकी बायीं तरफ़ मैं बैठी हुई। गाड़ी के अन्दर मीठी-सी खुशबू! कैसेट पर गाना बजता हुआ–'प्रथमतः मुझे तुम चाहिए। द्वितीयतः मुझे तुम चाहिए! नृतीयतः मुझे तुम चाहिए! अन्ततः तुम ही चाहिए...।' गाना सुन कर मेरा मन-प्राण जुड़ा गया। यह तो मेरे ही दिल की बात है।
मंसूर गाड़ी चलता रहा और बार-बार मुझे लिखता-परखता रहा। गाड़ी का लुकिंग-ग्लास इस क़ायदे से घुमा रखा था कि उसमें मेरी सूरत दिखती रहे। मंसूर कितनी ग़ज़ब का रोमांटिक है। ग्लास पर नज़र जाते ही, मेरी और उसकी आँखें एक-दूसरे से टकराती हुईं। वह हँस रहा था! कितनी मासूम है, उसकी हँसी! कोई कुछ नहीं बोल रहा था। मैं सोचती रही, पहले मैं ही बातचीत की पहल करूँ।
लेकिन मंसूर ने ही बातचीत की शुरुआत की, 'मुझे आने में देर हो गयी। एक काम में फंस गया। तुम्हें आये कितनी देर हुई?'
‘बहुत देर!'
'आई एम सॉरी!' कहते हुए, मंसूर ने मेरे दाहिने हाथ पर हौले-से हाथ रखा।
मैं ज़रा-सी सकुचा भी गयी।
मंसूर कहाँ जा रहा है, मुझे नहीं मालूम!
एक बार ख़याल भी आया कि उससे पूछूँ, लेकिन इसकी क्या ज़रूरत है? पतवार उसके हाथ में है! जब मैंने ही कहा है कि बहा ले चलो तरी, अनन्त सागर में, तो दिक्दर्शन यन्त्र अपने हाथ में क्यों लूँ?
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