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उपन्यास >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


'यह किसका मकान है?' मैंने सिर उठा कर, सवाल किया। शायद अपनी गँवारू मुद्रा मिटाने के इरादे से ही ऐसा किया था।

'उस लड़के, मुफ़ख्वर को देखा न, गोरा-गोरा? घर उसका है।'

'वे लोग वहाँ क्या कर रहे हैं?'

'अड्डा दे रहे हैं, ताश खेल रहे हैं, गाने सुन रहे हैं।'

'कितना मज़ा आ रहा होगा, है न?'

'हाँ! ऐसे मज़े करने का तुम्हारा मन नहीं करता?'

'खूब करता है। लेकिन माँ-अब्बू अनुमति नहीं देते।'

'अनुमति की क्या ज़रूरत है? अब, तुम बड़ी हो गयी हो या नहीं?'

'हाँ, हो तो गयी हूँ, लेकिन, वे लोग यह नहीं समझते।'

'वे लोग तो, खैर, कभी भी नहीं समझेंगे। तुम वही करो, जो मन करे।'

मंसूर रिवॉल्विंग कुर्सी पर लगभग लेटा पड़ा था, दोनों टाँगें पलंग पर टिकी हुईं। बीच-बीच में वह कुर्सी समेत झूला झूलने लगता था, इधर से उधर लहरा उठता था।

'तुम बेहद खूबसूरत हो, शीला!' वह मेरी तरफ़ मुख़ातिब हुआ।

मैं सकपका गयी। मेरे सीने में जाने कैसी तो कँपकँपी शुरू हो गयी। मैंने नज़रें उठा कर, उसकी तरफ़ देखा। उसका ऐसा अगाध सौन्दर्य कि आँखें, हटाए नहीं हटती थीं, मैं उसे निहारती ही रही। मेरे दिये हुए गुलाब मेज़ पर पड़े हुए थे। मंसूर मुग्ध निगाहों से मेरी तरफ़ देखता रहा। मुझे सबसे ज़्यादा यह देख कर अच्छा लगा कि वह मेरे बदन से सट कर नहीं बैठा, मुझे चूमने की कोशिश नहीं की। यह शख़्स काफ़ी संयमी जीव है, वर्ना ऐसे एकान्त कमरे में, पागलों की हद तक उस पर फ़िदा प्रेमिका को पा कर भी, भला कोई कर्सी पर य बैठा रह सकता है?

मंसूर अपनी कुर्सी से न हिला, न डुला, बस, बार-बार, लगातार मुझे निहारता रहा।

'चाय पीओगी, शीलू?' उसने पूछा।

'शीलू' सम्बोधन सुन कर, मैंने मुग्ध निगाहों से उसे देखा।

उसकी बड़ेरी युगल आँखों में स्नेह मानो उमड़ा पड़ रहा था।

'चाय तो मैं पीती नहीं-' मैंने जवाब दिया।

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