उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
वहाँ से लौट कर, उसने कहा, 'इस घर की तरफ़ से तुम्हें निमन्त्रण है! दोपहर के वक़्त आ जाना। ठीक है? हम सब मिलकर खायेंगे-पीयेंगे। मुफ़खखर को संकोच हो रहा है कि तुम भरी दोपहरी में आयीं और तुम्हें बिना कुछ खिलाये-पिलाये, विदा करना पड़ रहा है। मैंने भी सोचा था कि अगर कोई काम न आ पड़ा, तो हम, कहीं बाहर खायेंगे, यहाँ गपशप भी कर लेंगे। यह घर सुरक्षित है। लेकिन सुबह-सुबह ही कारखाने में गड़बड़ी की ख़बर आ पहुँची।'
मैंने ड्रॉइंगरूम में एक बार झाँक कर, 'चलती हूँ, कल आऊँगी-' वगैरह औपचारिक जुमले दुहरा कर, विदा ली।
मंसूर ने खुद ही दरवाज़ा खोल दिया।
स्टीयरिंग पर हाथ रख कर उसने एक बार फिर मीठी-सी हँसी बिखेरी। उसकी हँसी में मोती झर रहे थे।
'तुम्हें क्या रुकैया हौल तक छोड़ दूं?'
'ना-'
'क्यों? तुम तो उसी हॉल में ही रहती हो न?'
'नहीं, घर में रहती हूँ। घर, शान्तिनगर में है। अच्छा, एक बात तो बताओ, तुमने पहली बार मुझे कहाँ देखा था?'
'क्यों? बनानी की आढ़त में!'
'उससे भी पहले, किताबों की किसी दुकान के सामने? उससे पहले, किसी घर में? गानों के कार्यक्रम में?'
मंसूर ने दुविधाग्रस्त मुद्रा में सिर हिलाया, जिसका मतलब था, 'ना' या उसे याद नहीं आ रहा है।
'तुम्हें मैं कहीं आस-पास छोड़ दूँ, शीलू? असल में, मुझे बेहद जल्दी है।'
'ठीक है! ठीक है!'
'कल आ जाना! कल के लिए तुम्हें निमन्त्रण रहा।'
'हाँ, ज़रूर आऊँगी।'
'घर तो पहचान लोगी न?'
'हाँ, पहचान लूंगी।'
'स्कूटरवाले से कहना-गुलशन, एक नम्बर मार्केट के पीछे। घर का नम्बर तो याद है न?'
'हाँ, याद है।'
'कल खूब सारी बातें होंगी, शीलू! तुम बेहद लक्ष्मी-लड़की हो! कल साड़ी पहन कर आना।'
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