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निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


मुझे मगबाज़ार उतार कर, मंसूर बांग्ला मोटर की ओर बढ़ गया। वह जितनी दूर तक नज़र आता रहा, मैं उसे देखती रही।

असल में, मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मंसूर से आज मैं सचमुच मिली हूँ। मैं काफ़ी देर तक मगबाज़ार के मोड़ पर ही खड़ी रही।

मुझे लगा, दोपहर एक बजे से ले कर ढाई बजे तक, जो-जो घटनाएँ घटी, सब किसी सपने की बेसुधी में घटी हैं। असल में, सब कुछ हवाई था! निरा शून्य! रिक्शा ले कर शान्ति नगर की तरफ़ जाते-जाते, मंसूर की हर बात, हर हाव-भाव, उसके दोस्तों के नाम, शक्ल-सूरत-सब कुछ मेरे मन की आँखों में तैरता रहा। मैंने ज़रूर कोई ग़लती नहीं की, मेरे हाव-भाव स्वभाव में ऐसा असंलग्न कुछ भी नहीं था, जिसके आधार पर वे लोग कह सकें कि वह लड़की बुद्धि विचारहीन थी।

घर लौटते ही, दरवाज़े पर ही खड़ी तुलसी पर मेरी नज़र पड़ी! चेहरा परेशान!

'शीला, मेरे माँ-बप्पा यहाँ से जा रहे हैं।'

'तुझे कैसे पता?'

'मृदुल'दा ने खत भेजा है।'

तुलसी ने अपने आँचल की खूट से बँधा ख़त निकाल कर मुझे दिखाया।

ख़त में लिखा हुआ था-

'तुलसी, तूने अपने सुख के लिए घर छोड़ा है। भगवान करे, तू सुखी हो। लेकिन, हम लोग जा रहे हैं। घर बेचने की तोड़-जोड़ चल रही है। बप्पा ने फ़ैसला दिया है कि हम कलकत्ता, चाचा लोगों के पास चले जाएँगे। शायद, अगले महीने ही चले जायें।-इति, मृदुल कान्ति चक्रवर्ती!'

तुलसी का चेहरा लटका हुआ। अगले महीने तक वह घर बिक जायेगा। इतना प्राचीन घर! तुलसी का तो जन्म ही वहाँ हुआ था। यादें, इन्सान की बहुत बड़ी सम्पत्ति होती हैं। इन्सान रुपये-पैसे, गाड़ी मकान, बेहिचक खो देने को तैयार हो जाता है, लेकिन यादें कभी भी खोना नहीं चाहता। तुलसी का दुख, मैं समझती हूँ। उसके माँ-बप्पा का दुख भी समझ में आता है। असल में, यहाँ, इस घर में, मैं एक ऐसी महत्वहीन इन्सान हूँ कि मेरे सलाह-मशविरे का कोई मोल नहीं है, वर्ना दो खानदानों में, इस विवाह नामक घटना से पहले जैसी पक्की दोस्ती थी, वैसी ही अटूट दोस्ती, हर शर्त पर कायम रखने की व्यवस्था की जाती। इसके लिए अगर कुछ त्याग भी करना पड़े, तो दोनों ख़ानदानों को करना चाहिए था। फ़िलहाल, यह सब मेरे सोचने का विषय नहीं है। कल मेरा निमन्त्रण है। मंसूर ने कल मुझे साड़ी पहनने को कहा है। लेकिन, मुझे तो साड़ी पहननी आती ही नहीं और मेरे पास कोई साड़ी भी नहीं है, माँ से नहीं, सोचती हूँ, भाभी से एक साड़ी माँग लूँ। तुलसी की इस विपदा के वक़्त, उनसे कुछ माँगना, हरगिज़ शोभन नहीं होगा।

वह शाम और रात खासी बेचैनी में गुज़री।

कल मेरा निमन्त्रण है।

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