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निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


अगर मैंने साड़ी पहनी, तो माँ झट सवाल करेगी-साड़ी क्यों पहन रही है? माँ को कुछ कह-सुन कर समझाना होगा। लेकिन उनसे क्या कहा जाये? यह कहा जा सकता है कि-'नवीन वरण उत्सव मनाया जा रहा है, आज सबको साड़ी पहनने को कहा गया है।' बस, बच जाऊँगी। लेकिन, अगर उन्हें पता चल गया कि 'नवीन वरण' उत्सव हुआ ही नहीं, तो कह दूंगी-'उत्सव होने वाला था, हुआ नहीं!' या यही कह दिया जाए कि 'नादिरा के यहाँ निमन्त्रण है।'

रात भर बिल्कुल भी नींद नहीं आयी। मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ। ऐसी निद्राविहीन रात, मेरी ज़िन्दगी में शायद ही कभी आयी हो। उस दिन मुँह-अँधेरे ही मैंने बिस्तर छोड़ दिया और आँगन में टहलती रही।

सेतु-सेवा को भी उपदेश दे डाला! 'सुबह-सवेरे उठ जाना अच्छा होता है, तुम दोनों भी भोर-भोर उठने की कोशिश किया करो।'

'फ़रहाद कैसा है, री, शीला?' सबेरे नींद खुलते ही अब्बू ने मुझसे सवाल किया।

मैं कोई जवाब नहीं दे पायी।

अब्बू ने आँगन में टहलते हुए फिर कहा, 'सुना है, फरहाद नौकरी खोज रहा है। लेकिन, मैं पूछता हूँ, नौकरी-चाकरी करके, वह क्या करेगा? इससे बेहतर है, उसे मेरे ऑफ़िस में भेज देना।

उसे रुपये-पैसों की जो ज़रूरत लगे, मुझसे ले लिया करे। उसे नौकरी खोजने को मना कर दे। अगर उसने परीक्षा नहीं दी, तो मैं सचमुच उसे घर से निकाल बाहर करूँगा।'

अब्बू भी न! ख़ामख्वाह कठोर होने की कोशिश करते हैं। असल में वे काफ़ी नरम-दिल इन्सान हैं। अब्बू के प्यार का, किसी को यूँ ही...आसानी से अन्दाज़ा नहीं लगा सकता। लेकिन कान अगर खुले रखे, तो उसकी समझ में आ जायेगा, उनका प्यार चल-फिर रहा है; पैर दबा-दबा कर बिलैया की तरह, चुपचाप गतिशील है।

मैंने इस घर के सभी लोगों को चकमा दिया। किसी को भी अन्दाज़ा नहीं हो सका कि कल मैं कहाँ गयी थी, मैंने किससे बातें कीं। कोई नहीं जान पाया कि कल मैंने गुलशन के किसी मकान में, मंसूर नामक एक बेहद खूबसूरत नौजवान से बातें कीं। आज भी उस घर में मेरा निमन्त्रण है। दोपहर का खाना, वे लोग शायद बावर्ची बुला कर, तैयार करायेंगे या हो सकता है बाहर से पैकेट-लंच ले आयेंगे। वैसे मंसूर मुझे अपने घर भी ले जा सकता था, लेकिन शायद कोई परेशानी रही होगी। वह इश्क कर रहा है, यह बात अगर उसके घरवालों को पता चल गयी, तो वे लोग भी भला क्या सोचेंगे?

मंसूर से एक ग़लती तो हुई है। उसे याद ही नहीं है कि मुझसे उसकी पहली मुलाकात, मृदुल'दा के यहाँ हुई थी। वैसे, उस दिन उसने मुझे गौर से नहीं देखा था, यह भी सच है। आज मृदुल'दा का प्रसंग छेड़ कर, उसे बेतरह चौंका दूँगी। उसने मुझसे यह नहीं पूछा कि मैं कौन-सी पढ़ाई कर रही हूँ, कहाँ पढ़ती हूँ। बस, रुकैया-हॉल का पता देख कर, उसने ज़रूर यही सोच लिया कि मैं विश्वविद्यालय की छात्रा हूँ। वैसे भी, कल तो उससे बिल्कुल बातचीत ही नहीं हुई। मैंने सोच लिया है, आज मैं अनर्गल, खूब-खूब बातें करूँगी। एक-दूसरे की ज़िन्दगी के बारे में अगर दोनों जन न जानें, तो प्रेम कैसे होगा?

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