उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
तुलसी काफ़ी देर से जागी।
अपने कमरे में बैठी-बैठी, मैं अस्थिर हो उठी। काफी देर तक, मैं बरामदे में चहलकदमी करती रही। माँ, ख़ाला के यहाँ चली गयी, अब्बू दफ़्तर!
भाई के कमरे में जा कर, मैंने तुलसी से पूछा, 'तुलसी, मुझे एक साड़ी दोगी, आज पहनने के लिए?'
'मेरे पास ज़्यादा साड़ियाँ तो नहीं हैं। तुम देख लो, कौन-सी पहनोगी।'
'साड़ी तुम्हें पहनानी भी होगी मुझे।'
'पहना दूंगी।'
तुलसी ने कई साड़ियाँ निकाल कर मेरे सामने रख दीं। मुझे उसकी नयी साड़ी पसन्द आयी।
'यह वाली पहनूँगी।' मैंने कहा।
तुलसी का ही नया ब्लाउज़ भी पहन लिया। वह ब्लाउज़ मुझे बिल्कुल फिट आया। हाँ, उसके निचले हिस्से में, बस, एक सेफ्टीपिन लगानी पड़ी।
भाई पूछ बैठे, 'बूढ़ियों की तरह, तू साड़ी क्यों पहन रही है?'
'फंक्शन है! साड़ी पहनना ज़रूरी है।'
तुलसी ने चुन्नट डाल कर, साड़ी पहना दी।
'ख़ासी हसीन लग रही है! देखना, कहीं फुर्र मत हो जाना।'
'किसी-न-किसी दिन फुर्र हो ही जाऊँगी, भाभीजान!' मैंने रहस्यमय मुद्रा में, आँखें नचाकर जवाब दिया।
'मुझे बताकर फुर्र होना! मैं रोकूँगी नहीं! बल्कि तेरे दल में शामिल हो कर, तेरा पक्ष भारी कर दूंगी।'
चूँकि आज मैंने साड़ी पहनी थी, इसलिए तुलसी ने मेरे चेहरे की भी सजावट कर दी। माथे पर लाल विन्दी! होटों पर लिपस्टिक!
'माथे पर, कोने में नज़रबटू भी लगा दूँ?' उसने पूछा।
भाई बिस्तर पर लेटे-लेटे कोई पत्रिका पढ़ रहे थे।
'सुन, जल्दी लौट आना, शीला! आज शाम, तुम लोगों को साथ ले कर, रतन के घर जाऊँगा।'
'मुझे भी ले चलोगो?' मैं महाखुश!
भाई अब काफ़ी घरेलू...काफ़ी अपने हो आये हैं।
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