उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
मैं मंसूर से बार-बार गुहार लगाती रही, 'नहीं मंसूर, नहीं! प्लीज, मंसूर, तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, मंसूर, प्लीज़ यह सब मत करो। नहीं, नहीं, यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता।' मंसूर ने मेरी ब्रा के हुक भी खोल डाले और मेरे स्तनों में अपना चेहरा रगड़ने लगा।
'तुम्हें अच्छा लगेगा, देखना! मैं तुम्हें प्यार कर रहा हूँ, शीलू सोना! प्यार कर रहा हूँ तुम्हें, शीलू! रानी लड़की! बात सुनो! चीखों मत!'
मैं हाथ-पाँव फेंकती रही।
मंसूर ने मेरा पेटीकोट भी उतार डाला। अपनी पैंट भी खोल डाली। मैंने आँखें मूंद लीं। मेरा समूचा तन-बदन थरथर काँपता रहा। मैं बिस्तर से उठ खड़ी हुई। मंसूर ने मुझे खींच कर, दुबारा बिस्तर पर ला पटका। इस बार मैं ज़ोर से चीख पड़ी।
'बचाइये मुझे, मुफ़ख्खर भाई! प्लीज़, दरवाज़ा खोलिये।' मैं चीखती रही।
मेरी चीखें, कमरे की दीवारों से टकरा कर, कमरे में ही गुम हो गयीं। मेरे तमाम सपनों, साध-उम्मीदें नोच-खसोट कर रक्ताक़त करते हुए, मंसूर मुझ पर चढ़ बैठा। डर और यन्त्रणा से मैं छटपटाती रही। मैं अपनी आँखों के सामने यह क्या देख रही हूँ? मैं पूरी तरह नंगी! मंसूर भी नंग-धडंग! वह मुझ पर लेट गया और कुचलता-पीसता रहा। उस वक़्त मैं चीख-चीख कर रोये जा रही थी। मंसूर ने कसकर मेरा मुँह दबोच लिया। मेरे गले से गोंगियाने की आवाज़ निकलती रही। मैं थर-थर काँपती रही। मेरे भयार्त, लज्जित, कम्पित देह के अन्दर, मंसूर अपनी समूची ताक़त से, दोनों ओर से, दोनों जाँघों में दबाये, मेरे अन्दर अपनी देह का उन्मुक्त, सन, निष्ठुर कोई अंग घुसेड़ने की कोशिश में जुटा था। चीत्कार करते हुए मेरे मुँह में उसने अपनी उतारी हुई शर्ट घुसेड़ दी। मेरी काली देह पर मंसूर की गोरी-सुन्दर देह, जाने क्या-क्या सब काण्ड करती रही, मैं भीषण यन्त्रणा से गौंगियाने लगी। मेरी दर्दभरी चीख-पुकार, मेरे मुँह में मंसूर की दूंसी हुई शर्ट की वजह से बाहर नहीं निकल पायी। मेरी पलकों की दोनों कोरों से धार-धार आँसू बह निकले। मंसूर को मुझ पर ज़रा भी दया नहीं आयी। मेरे दोनों हाथ, मंसूर ने अपने दोनों हाथों में कसे रखे। मेज़ पर, पिछले कल के गुलाब, सूखे-मुरझाये पड़े हुए थे। मंसूर मेरे अंग-अंग में तीखी पीड़ा भर कर, मेरी देह पर से उतर पड़ा।
दरवाजे पर खट-खट की आवाज़ हुई।
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