उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
मंसूर ने जल्दी-जल्दी अपने कपड़े पहने लिये।
मैं दर्द से छटपटाती रही।
'शीलू' हिलो मत-मंसूर ने कहा, 'सोना मेरी, हिलो मत!'
मैंने उठने की कोशिश की। लेकिन मैं हिल भी नहीं पायी।
दीर्घ आधा घण्टे तक शारीरिक यंत्रणा झेलने के बाद मुझे कस कर प्यास लग आयी। ऐसा लगा, मेरी जान निकल जायेगी। मैंने खाली-खाली निगाहों से देखा। सामने सफ़ेद दीवार के अलावा कुछ भी नहीं। मेरा सिर बेतरह चकरा रहा था। देह की हर मांसपेशी में असहनीय पीड़ा।
अब, कमरे में, कल वाला धुंघराले बाल, काला-कलूटा, मरगिल्ला छोकरा, जिसका नाम चिश्ती था।
मंसूर कमरे से बाहर निकल गया।
कमरे में क़दम रखते ही, चिश्ती ने दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया। फटाफट अपनी शर्ट-पैंट खोल डाली। मैंने करुणा पाने की उम्मीद में, अपनी आँसू भरी आँखें, चिश्मी के चेहरे पर टिका दीं।
चिश्ती भी बिस्तर पर चढ़ आया। वह भी मंसूर जैसी हरक़तें दोहराने लगा। 'मंसूर! मंसूर! मुझे बचाओ-!' मैं चीखने लगी।
पता नहीं, क्यों तो मैंने चीख़ मारी! मंसूर भला मुझे बचाने आता?
चिश्ती नामक नौजवान, काफ़ी देर तक लगा रहा और मुझे दर्द के सागर में और ज़्यादा डुबो कर, मुझे और ज़्यादा निस्तेज करते हुए, उठ गया। उसके मुँह से भी तीखी गन्ध आ रही थी।
चिश्ती कै जाते ही, मुफ़ख्खर नामक, वह मोटा-मुटल्ला कमरे में दाखिल हुआ। उस वक़्त तक मुझमें छटपटाने की ताक़त भी नहीं बची थी। मेरी देह का निचला हिस्सा यन्त्रणा से फटा जा रहा था।
'क्यों री, हरामजादी, कैसा लग रहा है?' उसने छूटते ही सवाल दागा।
'भइया, यह तो आपका ही घर है न! आप मुझे बचा लीजिये। आप मेरे भाई हैं-'मैंने क्षीण आवाज़ में विनती की।
मुफ़ख्खर के बदन पर सिर्फ एक जाँघिया! कमरे में घुसते ही, उसने वह जाँघिया भी उतार कर फेंक दिया।
'हरामज़ादी, खूब तो चीख़-चिल्ला रही है...!' उसने ज़ोर का ठहाका लगाया।
मेरी आँखों से टप-टप आँसू झरते रहे।
ना, अब, चीखने-चिल्लाने से कोई फायदा नहीं।
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