उपन्यास >> निमन्त्रण निमन्त्रणतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...
मुफ़ख्खर की स्थूल देह ने मेरी देह पर अपना सारा वज़न डाल दिया। मेरी देह अपने आप ही कराह उठी। उस आदमी ने मेरे दोनों उभारों को अपने हाथों में ले कर खूब-खूब मसला, जाने क्या-क्या काण्ड करता रहा। उसके बाद, वही पहले जैसी घोर यन्त्रणा देने का दौर! उसने मेरे कुचारों को इस क़दर नोचा-काटा कि खून बह निकला। शरीर के निचले हिस्से में जैसे कोई चेतना ही नहीं रही। मेरे यौनांग, जाँघे, पाँव अवश हो आये।
मैंने तो सोचा था, ये सब शारीरिक घटनाएँ, विवाह के बाद घटेंगी। मंसूर मुझे हौले-हौले स्पर्श करेगा।
मेरी समूची देह, वह उँगलियों से सहलाते हुए बड़े प्यार से कहेगा, 'बीवी, तू न, बेहद भली है। बेहद खूबसूरत!'
मेरा सपना था, हम सुख के समन्दर में अपनी नौका बहा देंगे... लेकिन, आज यह क्या हुआ? दरवाज़ा धकिया कर शायद फिर कोई कमरे में दाखिल हुआ।
उस वक़्त मुझमें बोलने की भी ताक़त नहीं थी, न आँखें खोल कर देखने की।
जब मेरे शरीर पर किसी के दाँतों का दबाव पड़ा, उस पर मैं, न हिली, न रोयी। बस, स्थिर पड़ी रही! अवश! बेजान!
वह नंगम था, मंसूर का दोस्त!
उसके बाद...शायद महमूद आया।
मुझे बग़ल के कमरे से ठहाकों की आवाज़ सुनायी दी, कुछ टूटने की झनझनाहट भी।
बाहर से जाने किसने तो पूछा, 'महमूद, तेरा हो गया?'
कल वाला अंग्रेज़ी संगीत ज़ोर-जोर से बजता रहा।
इस वक़्त अगर मैं चीख-चीख कर शोर भी मचाऊँ, तो भी मेरी आवाज़ कहीं नहीं पहुंचेगी। सारी चीख-पुकार संगीत में गुम हो कर रह जायेगी।
उसके बाद, लाबू आया, वही काला-सा शख्स !
किसने, कौन-कौन-सी हरक़त की, पता नहीं!
मेरा समूचा तन-बदन भारी हो आया, बिल्कुल पत्थर जैसा! लेकिन बीच-बीच में रुई जैसा हल्का भी!
काफ़ी वक़्त गुज़र गया, और कोई नहीं आया।
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