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निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...


मंसूर को आवाज़ दूं? वह क्या मेहरबानी करके, मुझे घर पहुँचा देगा? मेरे सपनों का पुरुष, क्या मेरी इतनी-सी भी मदद नहीं करेगा? मुझसे हिला तक नहीं जा रहा है। मंसूर को भी आवाज़ नहीं दे पायी। बिस्तर की चादर खून से तर-ब-तर! मेरे यौनांग से कलकला कर, खून की धार बहती रही। पीठ के नीचे भी शायद खून जम गया है। खून बह-बह कर एड़ियों तक बहता हुआ।

मेरी आँखों को कुछ दिखायी नहीं दे रहा है। सारा कुछ धुंधला होता जा रहा है। रिवॉल्विंग कुर्सी, मेज़, मेज़ पर रखे हुए फूल-सारा कुछ धुंधलाता जा रहा है। धीरे-धीरे, मेरी आँखों में थोड़ा-थोड़ा करके स्वच्छ दृष्टि वापस लौटी, मैंने देखा, समूचे कमरे में घोर अँधेरा है, रात उतर आयी है। इस कमरे में दुबारा क्या कोई नहीं आया? मंसूर भी नहीं? मंसूर ने भी क्या एक बार, तरस खा कर ही सही, मेरे क्लांत, छिन्न-भिन्न, खून में नहाई हुई रिक्त देह पर अपना हाथ नहीं रखा?

खिड़की पूरी तरह खुली हुई थी। बाहर की सर्द-सर्द हवा कमरे में हहराकर दाखिल होती हुई! यह शुद्ध-पवित्र हवा मानो मेरी अनावृत्त-उन्मुक्त देह को धो रही हो। मैंने जी भर कर भरपूर साँस लिया और सिर उठाने की कोशिश की। लेकिन, मेरी पीठ बिल्कुल जड़-पत्थर, हिली तक नहीं। मैंने दुबारा कोशिश की...फिर कोशिश की! लगता है, मुझे लुढ़क कर उतरना होगा।

कोहनी पर सारा वजन टिकाये, मैं लुढ़कते-लुढ़कते, पलंग के किनारे आयी। सिर बचा कर, मैंने अपनी देह को नीचे गिराया। फर्श पर क़ालीन बिछी हुई थी। खून थक्के-थक्के हो कर जम गया था। खून अब नये सिरे से नहीं झर रहा था। आख़िर, कितना झरता! झरने का भी तो कोई अन्त होता है? शरीर का नुकसान होता है, लेकिन नुकसान का भी तो कोई अन्त होता है? उसी तरह सरकते-खिसकते, मैंने हाथ बढ़ा कर कपड़े समेटे, कमज़ोर हाथों से उन्हें बदन पर लपेट लिया।

मैं क्या कमरे से निकल पाऊँगी? मेरे बदन में क्या बूँद भर भी ताक़त बच रही है? पलंग का पाया थाम कर, मैं बमुश्किल उठ खड़ी हुई। खड़े होने में ही मैं बेतरह हाँफ उठी। पलंग, दीवार, दरवाज़ा पकड़-पकड़ कर, मैं बाहर निकल आयी। एक दरवाज़ा दूसरे कमरे की तरफ़! एक और दरवाज़ा बाहर की तरफ़! बाहर जाने वाला दरवाज़ा खोल कर, ज़मीन पर गिरते-पड़ते, उठ-उठ कर खड़े होते-होते, मैं वह बड़ा-सा दरवाज़ा पार करके, खुली सड़क पर निकल आयी। बदन पर साड़ी लिपटी हुई! सड़क पर स्थित लैम्प पोस्ट पर अपनी देह का वजन टिका कर, मैंने खड़े होने की कोशिश की, लेकिन नाकाम हो कर, वहीं बैठ गयी।

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