गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
चन्द्रहासने मुँहसे शालग्रामजीकी मूर्ति निकालकर प्रेमसे आँसू बहाते हुए वनके फूल-पत्तोंसे भगवान्की पूजा की। तदनन्तर गद्गद कण्ठसे उसने गाया-
गहो आज हाथ नाथ शरण मैं तिहारी।
तात मात बन्धु-भ्रात सुहृद सौख्यकारी॥
एक तुम्हीं सरबस मम प्रणत-दुःखहारी।
दास जानि इच्छाधीन इच्छित शुभकारी॥
मृत्युमोहि, मोहन! मोहि, मिलौ मोहि टारी।
वनस्थलीमें करुणारस छा गया। भगवान्ने यन्त्र घुमाया, घातककी आँखों से आँसूकी दो बूंदें टपक पड़ी। उसका हृदय पलट गया। उसने मन-ही-मन सोचा-‘ऐसे हरिभक्त निर्दोष बालककी हत्यासे न मालूम मेरी क्या गति होगी?' वध करनेका विचार त्याग दिया, परंतु धृष्टबुद्धिके लिये कोई निशान चाहिये, वह इस चिन्तामें पड़ गया। चन्द्रहासके एक पैरमें छः अँगुलियाँ थीं। अकस्मात् घातककी दृष्टि उधर गयी। उसका चेहरा चमक उठा, उसने तुरंत ही तलवारसे छठी अँगुली काट ली। अशुभ स्वयमेव नष्ट हो गया। चन्द्रहासको वहाँ छोड़कर घातक लौट गया, धृष्टबुद्धिको अँगुली दिखा दी, जिससे उसके आनन्दका पार नहीं रहा। उसने समझा, आज मेरे बुद्धिकौशलसे मुनियोंकी अमोघवाणी भी व्यर्थ हो गयी।
घोर अरण्यमें सुकुमार बालक अकेला पड़ा है; पैरमें पीड़ा हो रही है, परंतु मुखसे वही कृष्णनामकी धुन लग रही है। इतनेमें उसने देखा, एक स्निग्ध नील ज्योति उसकी ओर बढ़ी चली आ रही है। उसी समय अकस्मात् जादूकी तरह उसकी सारी वेदना नष्ट हो गयी। भूख-प्यास शान्त हो गयी, मुखकमल प्रफुल्लित हो उठा, परम आनन्दसे भर गया। वनकी हरिणियाँ उसका पैर चाटने लगीं, पक्षियोंने छाया की, वृक्ष फल देने लगे, पृथ्वी कोमल हो गयी। बालक मुग्धचित्त और मधुर कण्ठसे नामध्वनि करने लगा। भीषण अरण्य हरिनाम-नादसे निनादित हो उठा, पशु-पक्षी परम आत्मीयकी तरह उसके साथ खेलने लगे।
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