गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
भगवान् अपने भक्तको विपत्तिमें अकेला नहीं छोड़ते। बेटा! तू उन भक्तवत्सल श्रीकृष्णसे भय न करना, उनसे डरनेवाला जी नहीं सकता। यदि तू डर जायगा तो सब लोग मुझे हँसेंगे कि तेरा पुत्र श्रीकृष्णको देखकर रणसे विमुख हो गया। यदि तू लड़ते-लड़ते रणमें धराशायी होकर वीरोंकी श्रेष्ठ गतिको प्राप्त होगा तो मुझे उसमें हर्ष होगा। पुत्र! इस बातको याद रखना कि श्रीकृष्णके सामने रणमें मरनेवाला पुरुष वास्तवमें मरता नहीं, वह तो अपनी इक्कीस पीढ़ीका उद्धार करनेवाला होता है।
हरेः किं सम्मुखे पुत्र पतितः पतितो भवेत्।
तेनैव चोधृताः सर्वे आत्मना चैकविंशतिः॥
संसारमें उन्हीं माताओंको रोना पड़ता है, जिनके पुत्र-पौत्र भगवान् श्रीहरिकी ओर नहीं जाते।
एक दिन सच्ची माता देवी सुमित्राजीने भी प्रिय पुत्र लक्ष्मणको यही उपदेश दिया था-
पुत्रवती जुबती जग सोई।
रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी।
राम बिमुख सुत ते हित जानी॥
माताके सदुपदेशको सुनकर वीर सुधन्वाने जननीको सन्तोष कराते हुए कहा-‘माता! तुम्हारे आज्ञानुसार युद्धमें प्रवृत्त होकर जी-जानसे लड़कर हरिको लाऊँगा। पुरुषार्थ करना मेरे अधीन है, फल भगवान्के हाथ है; परंतु श्रीकृष्णको देखकर यदि मैं विमुख हो जाऊँ तो न तेरे पेटसे पैदा हुआ कहाऊँ और न मुझे सद्गतिकी ही प्राप्ति हो।' धन्य वीर!
तदनन्तर बहिन कुवलासे अनुमति और उत्साह प्राप्त कर सुधन्वा अपनी सती पत्नी प्रभावतीके पास गया, वह पहलेसे ही दीपकयुक्त सुवर्णके थालमें चन्दन-कपूर लिये आरती उतारनेको दरवाजेपर ही खड़ी थी। सतीने बड़े भक्ति-भावसे वीर पतिकी पूजा की, तदनन्तर धैर्यके साथ आरती करती हुई नम्रताके साथ पतिके प्रति प्रेमभरे गुह्य वचन कहने लगी-‘हे प्राणनाथ! मैं आपके श्रीकृष्णके दर्शनार्थी मुखकमलका दर्शन कर रही हूँ, परंतु नाथ! मालूम होता है आज आपको एकपत्नीव्रत नष्ट हो जायगा। पर आप जिसपर अनुरक्त होकर उत्साहसे जा रहे हैं, वह स्त्री मेरी बराबरी कभी नहीं कर सकेगी। मैंने आपके सिवा दूसरेकी ओर कभी भूलकर भी नहीं ताका है, परंतु वह ‘मुक्ति' नाम्नी रमणी तो पिता, पुत्र सभीके प्रति गमन करनेवाली है। आपके मनमें ‘मुक्ति' बस रही है, इसीसे श्रीकृष्णके द्वारा उसके मिलनेकी आशासे आप दौड़े जा रहे हैं। पुरुषोंका चित्त देवरमणियोंकी ओर चला ही जाता है, परंतु आप यह निश्चय रखिये कि श्रीहरिको देखकर उनकी अतुलित मुखछबिके सामने ‘मुक्ति' आपको कभी प्रिय नहीं लगेगी; क्योंकि उनके भक्तजन, जो उनकी प्रेम-माधुरीपर अपनेको न्योछावर कर देते हैं, वे मुक्तिकी कभी इच्छा नहीं करते। मुक्ति तो दासीकी तरह चरण-सेवाका अवसर हूँढ़ती हुई उनके पीछे-पीछे घूमा करती है, परंतु वे उसकी ओर ताकते ही नहीं। यहाँतक कि हरि स्वयं भी कभी उन्हें मुक्ति प्रदान करना चाहते हैं, तब भी वे उसे ग्रहण नहीं करते।
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