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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद
तो सब स्वप्नों की एक सामान्य विशेषता यह होगी कि हम स्वप्न देखते समय सोए
रहते हैं। सीधी बात है कि स्वप्न नींद के समय का मस्तिष्क का जीवन है-ऐसा
जीवन, जिसमें हमारे जाग्रत जीवन से कुछ सादृश्य होते हैं, और साथ ही, उससे
बहत अधिक भिन्नता होती है। यह अरस्त की परिभाषा है। शायद स्वप्न और नींद का
एक-दूसरे से इससे भी नज़दीकी सम्बन्ध है। स्वप्न हमें जगा सकता है; जब हम
स्वतः जाग जाते हैं, या नींद से बलात् जागते हैं, तब प्रायः हम स्वप्न देख
रहे होते हैं। इस प्रकार स्वप्न सोने और जागने के बीच की अवस्था प्रतीत होती
है। इसलिए हमें नींद पर ही ध्यान देना होगा। तो नींद क्या है?
यह एक कार्यिकीय या जैविकीय समस्या है, जिसके बारे में अभी बड़ा विवाद है। हम
किसी निश्चित उत्तर पर नहीं पहुंच सकते। पर मैं समझता हूं कि हम नींद की एक
मनोवैज्ञानिक विशेषता बताने की कोशिश कर सकते हैं। नींद एक ऐसी अवस्था है
जिसमें मैं बाहर की दुनिया से कोई वास्ता नहीं रखता, और मैंने उससे सारी
दिलचस्पी हटा ली है। मैं बाहरी दुनिया से हटकर और उससे पैदा होने वाले सब
उद्दीपकों से विमुख होकर सोता हूं। इसी तरह, जब मैं इस दुनिया से थक जाता
हूं, तब सो जाता हूं। जब मैं सोने लगता हूं, तब इससे कहता हूं, 'मुझे शान्ति
से रहने दो, क्योंकि मैं सोना चाहता हूं।' बच्चा इससे ठीक उल्टी बात कहता है,
'मैं अभी नहीं सोऊंगा, मैं थका नहीं हूं। मैं और खेलना चाहता हूं।' इस तरह
नींद का जैविकीय उद्देश्य स्वास्थ्य-लाभ या ताजगी प्रतीत होता है और इसकी
मनोवैज्ञानिक विशेषता बाहरी दुनिया में दिलचस्पी न रखना प्रतीत होता है।
मालूम होता है कि जिस दुनिया में हम इतनी अनिच्छा से आए थे, उससे हमारा
सम्बन्ध तभी सहने योग्य होता है, जब बीच-बीच में हम उससे अलग होते रहें;
इसलिए हम कुछ-कुछ समय बाद उस अवस्था में चले जाते हैं, जिसमें हम दुनिया में
आने से पहले थे, अर्थात् हम गर्भावस्था के जीवन में आ जाते हैं। चाहे जैसे
कहिए, पर हम बिलकुल वैसी ही अवस्थाएं-गर्मी, अंधेरा और उद्दीपन का अभाव, जो
उस अवस्था की विशेषताएं हैं-लाना चाहते हैं। हममें से कुछ लोग सिकुड़कर वैसे
ही गेंद की तरह लुढ़कते हैं, जैसे गर्भावस्था में। ऐसा मालूम होता है कि जैसे
हम लोग पूरी तरह इस दुनिया के नहीं हैं, बल्कि सिर्फ दो-तिहाई अंश में इसके
हैं। हमारा एक-तिहाई भाग अभी बिलकुल पैदा ही नहीं हुआ। सवेरे हर बार जागने के
समय मानो हम नया जन्म लेते हैं। सच बात तो यह है कि हम नींद से जागने की
अवस्था की चर्चा इन्हीं शब्दों में करते हैं। हम अनुभव करते हैं, 'मानो हमारा
नया जन्म हुआ है!' और ऐसा कहते हुए नवजात शिशु के सामान्य संवेदनों के बारे
में हमारा विचार शायद बिलकुल गलत होता है। इसके विपरीत यह माना जा सकता है कि
वह बहुत बेचैनी अनुभव करता है। फिर जन्म का उल्लेख करते हुए कहा करते हैं कि
'दिन का प्रकाश देखना।'
यदि नींद का यही स्वरूप है, तब तो स्वप्न इसके अन्तर्गत ज़रा भी नहीं आते,
बल्कि वे इसमें अप्रिय मेहमान-से प्रतीत होते हैं, और सचमुच ही हम यह मानते
हैं कि बिना स्वप्नों की नींद सबसे अच्छी और एकमात्र ठीक नींद है। नींद में
कोई मानसिक कार्य नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा कोई कार्य होता रहता है तो उतनी
मात्रा तक हम प्रसव से पहले वाली सच्ची शान्ति की अवस्था में नहीं पहुंच सके
हैं। हम मानसिक व्यापार के कुछ अंशों से पूरी तरह नहीं बच सके हैं, और स्वप्न
की क्रिया इन अंशों को ही सूचित करती है। इस अवस्था में सचमुच यही मालूम होता
है कि स्वप्नों का कोई अर्थ होना आवश्यक नहीं है। गलतियों के बारे में स्थिति
कुछ और थी, क्योंकि वे कम-से-कम जागने के जीवन में दिखाई देने वाली क्रियाएं
तो थीं; पर यदि मैं सो जाता हूं और मैंने मानसिक व्यापार को पूरी तरह बन्द कर
दिया है (सिवाय उन अंशों के जिन्हें मैं नहीं दबा सका) तो कुछ आवश्यक बात
नहीं कि उनका कोई अर्थ हो। सच तो यह है कि ऐसे किसी अर्थ का मैं उपयोग भी
नहीं कर सकता, क्योंकि मेरा बाकी मन सोया पड़ा है। तब यह वस्तुतः सिर्फ
बीच-बीच में प्रबल हो जाने वाली प्रतिक्रियाओं का, ऐसी मानसिक घटनाओं का ही
मामला रह जाता है, जो शारीरिक उद्दीपन से पैदा होती हैं। इसलिए स्वप्न जागते
हुए जीवन के मानसिक व्यापार के अवशेष हैं जो नींद को भंग करते हैं, और हमें
इस तरह के विषय को, जो मनोविश्लेषण के काम के लिए बिलकुल बेकार है, तुरन्त
छोड़ देने का पक्का इरादा कर लेना चाहिए।
परन्तु अनावश्यक या बेकार होते हुए भी स्वप्न होते तो हैं ही, और हम उनके
अस्तित्व के कारण ढूंढ़ने की कोशिश कर सकते हैं। मानसिक जीवन नींद में क्यों
नहीं चला जाता? शायद यह कारण कि कोई ऐसी चीज़ और मौजूद है जो मन को शान्ति से
नहीं रहने देती। उद्दीपक उस पर क्रिया कर रहे हैं और इनसे वह अवश्य
प्रतिक्रिया करेगा। इसलिए स्वप्न नींद में मन पर क्रिया करने वाले उद्दीपकों
पर मन की प्रतिक्रिया का प्रकार है। यहां हमें स्वप्नों को समझने के मार्ग की
एक संभावना दिखाई देती है। अब हम विभिन्न स्वप्नों से यह ढूंढ़ने की कोशिश कर
सकते हैं कि नींद भंग करने का यत्न करने वाले उद्दीपक कौन-से हैं, जिन पर
होने वाली प्रतिक्रिया स्वप्नों का रूप लेती है। ऐसा करने पर सब स्वप्नों की
पहली सामान्य विशेषता हमारे हाथ में आ जाएगी।
क्या उनकी कोई और सामान्य विशेषता है? हां, एक और असंदिग्ध विशेषता है, पर
फिर भी उसे पकड़ना और उसका वर्णन करना कठिन है। नींद में मानसिक प्रक्रमों का
स्वरूप जागते समय के प्रक्रमों से बिलकुल भिन्न होता है। स्वप्नों में हम
बहुत-से अनुभवों में से गुजरते हैं, जिन पर हम पूरा विश्वास करते हैं जबकि
वास्तव में हम शायद एक ही नींद का बाधक उद्दीपक अनुभव करते हैं। हमारे अनुभव
अधिकतर नेत्रगोचर या आंख से दीखने वाले प्रतिबिम्बों के रूप में होते हैं।
उनके साथ भावना और विचार भी मिले हो सकते हैं, और अन्य ज्ञानेन्द्रियां भी
अपना कार्य करती हो सकती हैं, किन्तु स्वप्नों का अधिकांश
नेत्रगोचर-प्रतिबिम्बों का ही बना होता है। कोई स्वप्न सुनाने में कठिनाई का
एक कारण यही होता है कि हमें इन प्रतिबिम्बों को शब्दों के रूप में बदलना
होता है। स्वप्न देखने वाला हमसे बहुत बार कहता है, 'मैं उसकी तस्वीर बना
सकता हूं, पर उसे शब्दों में कहना नहीं जानता!' यह यथार्थतः मानसिक क्षमता
में कमी नहीं है, जैसी कि किसी दुर्बल मन वाले व्यक्ति और प्रतिभाशाली आदमी
के अन्तर में दिखाई देती है-यह अन्तर कुछ गुणात्मक1 अन्तर है, परन्तु ठीक-ठीक
यह कहना कठिन है कि क्या अन्तर है। जीन्टी फेकनर ने एक बार यह सुझाव रखा था
कि जिस रंगमंच पर (मस्तिष्क के भीतर) स्वप्न का नाटक खेला जाता है वह जागते
समय के विचारों के जीवन के रंगमंच से भिन्न होता है। यह ऐसा कथन है जो सचमुच
हमारी समझ में नहीं आता; न हमें यह पता चलता है कि यह हमें क्या जतलाना चाहता
है। पर इससे विचित्रता का प्रभाव सचमुच सूचित हो जाता है जो अधिकतर स्वप्नों
से हमारे ऊपर पड़ता है। दूसरे, स्वप्न की क्रिया और संगीत से अनभिज्ञ व्यक्ति
द्वारा वादन की तुलना यहां व्यर्थ हो जाती है क्योंकि पियानो पर अकस्मात
उंगली लगाने पर भी निश्चित रूप से वही स्वर बजेंगे, चाहे लये वे नहीं होंगी।
स्वप्नों की इस दूसरी सामान्य विशेषता को हम सावधानी से अपने ध्यान में
रखेंगे, चाहे हम इसे समझ न सकें।
क्या कोई और भी गुण सभी स्वप्नों में सामान्य रूप से होते हैं? मेरी समझ में,
कोई नहीं होता। जिधर देखता हूं उधर ही मुझे उनमें अन्तर दिखाई देते हैं; और
अन्तर भी हर बात में प्रतीत होने वाली अवधि में, सुनिश्चितता में, भावों के
कार्य में, मन में, उनके स्थायित्व में इत्यादि। पर किसी उद्दीपक को दूर रखने
के लिए किए जाने वाले बाध्यताकारक प्रयत्न में, जो मामूली भी है और बीच-बीच
में प्रबल हो उठता है, हमें स्वभावतः जिस चीज़ की आशा करनी चाहिए, यह वास्तव
में वह चीज़ नहीं है। लम्बाई की दृष्टि से कुछ स्वप्न बहत ही छोटे होते हैं,
जिनमें, सिर्फ एक ही प्रतिबिम्ब या बहुत थोड़े या एक ही विचार, और कभी-कभी तो
एक ही शब्द, होता है। कुछ स्वप्नों में वस्तु विशेष रूप से अधिक होती है। एक
पूरी की पूरी कथा उनमें प्रदर्शित होती है, और बहुत अधिक देर तक चलती रही
मालूम होती है। कुछ स्वप्न इतने स्पष्ट होते हैं जितने कि वास्तविक अनुभव,
यहां तक कि जागने के कुछ समय बाद तक हमें स्पष्ट नहीं होता कि वे स्वप्न ही
थे और कुछ स्वप्न बहुत ही हल्के, धुंधले और अस्पष्ट होते हैं। एक ही स्वप्न
में कुछ हिस्से बहुत अधिक सजीव होते हैं, और उनके बीच-बीच में ऐसे अस्पष्ट
अंश आते-जाते हैं कि वह सारा ही प्रायः धोखा मालूम होता है। फिर, कुछ स्वप्न
सर्वथा सुसंगत या कम-से-कम सुसम्बद्ध या समझदारी से भरे हुए या बहुत ही अधिक
सुन्दर होते हैं। कुछ स्वप्न मिले-जुले, असम्बद्ध, कमज़ोर दिखाई देने वाले,
बेहूदे या प्रायः बिलकुल पागलपन के होते हैं। कुछ स्वप्नों का हम पर कोई
प्रभाव नहीं मालूम होता, और कुछ स्वप्नों में प्रत्येक भाव अनुभव होता है;
इतना कष्ट होता है कि आंसू आ जाते हैं, इतना भय लगता है कि हम जाग जाते हैं,
आश्चर्य होता है, आनन्द होता है इत्यादि। बहुत-से स्वप्न जागने के कुछ ही समय
के बाद भूल जाते हैं, और कुछ सारे दिन याद रहते हैं, और धीरे-धीरे उनकी याद
हल्की और अस्पष्ट होती जाती है। कुछ स्वप्न ऐसे सजीव रहते हैं (जैसे बचपन के
स्वप्न) कि तीस साल बाद भी वे हमें इतने साफ रूप में याद रहते हैं जैसे वे
हाल के ही अनुभव हैं। हो सकता है कि स्वप्न आदमियों की ही तरह, एक बार दिखाई
दें और फिर कभी नहीं लौटें; या कोई आदमी एक ही बात स्वप्न में उसी रूप या
थोड़े-बहुत भिन्न रूप में बार-बार देखता रहे। संक्षेप में, मानसिक व्यापार के
ये अवशेष रात के समय अनन्त घटनाओं के अधीश्वर होते हैं, और ऐसी हर चीज़ पैदा
कर सकते हैं जो दिन में मन पैदा कर सकता है-बस इतना ही है कि ये कभी भी उनके
समान यथार्थ नहीं होती।
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1. Qualitative
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