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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

"तुम्हें तकलीफ क्या है दिलवर?”

"अब वादा पूरा होना चाहिए और शरअ की रू से इस नाचीज़ को शहज़ादी को प्यार करने का हक मिलना चाहिए।”

"ओह, तुम्हारा मकसद निकाह से है?” शहज़ादी ने एक फूल के गुच्छे से खेलते हुए कहा।

"बेशक, हुजूर शहज़ादी और वालिदे-अहद ने मुझसे वादे किये हैं।”

"लेकिन ये सब तो पुरानी बातें हैं जानेमन! मुगल शहज़ादियों की शादी नहीं होती है।”

"क्यों नहीं होती है?"

"क्या आपने नहीं सुना कि मामू शाइस्ता खाँ ने जहाँपनाह को इसकी वजह बताते हुए कहा था कि अगर ऐसा हुआ तो जिस अमीर से शादी की जाएगी उसे शहजादों की बराबरी का रुतबा देना पड़ेगा?”

"लेकिन खुदा के फजल से मैं भी बल्ख का शहज़ादा हूँ।”

"तो शहजादा साहेब, हमें इससे कब इन्कार है? हमारी नज़रे-इनायत पर आप शाकी न हों।”

"शाकी नहीं।”

"मगर जो बात हो ही नहीं सकती उसके लिए हम बादशाह सलामत से अर्ज भी कैसे कर सकती हैं”

"लेकिन शहज़ादी, आप तो सल्तनत की मालिक हैं, जहाँपनाह क्या आपकी बात टाल सकते हैं?”

"फिर भी एक मनसबदार से हिन्दुस्तान के बादशाह की लड़की की शादी गैरमुमकिन है।”

"तो फिर गुनाह से फायदा?”

"क्या तमाम हिन्दुस्तान के बादशाह की शहज़ादी भी गुनाह कर सकती है?”

"शहज़ादी, हिन्दुस्तान के बादशाह के ऊपर एक दीनो-दुनिया का बादशाह है।”

"वह आम लोगों के लिए है-क्या यह भी कभी मुमकिन है कि मुगल शहज़ादी एक अदना मनसबदार की ताउम्र लौंडी बनकर रहे?”

"बस खामोश, हम ऐसी बात सुनने के आदी नहीं। बस, हम अपनी खुशी से जिस कदर इनायत तुम पर करें, उतने ही में आसूदा रहो।”

"मगर मेरी भी कुछ ख्वाहिशात हैं।”

"होंगी, हम फिलहाल इस अम्र पर गौर नहीं कर सकतीं। तुम्हारी इल्तजा से हमने आज यहाँ बारहदरी में मुकाम किया और तुमसे मुलाकात की। हम चाहती हैं कि आइन्दा अपने इरादों को काबू में रखो।”

"तो हुजूर, मेरी एक अर्ज है।”

"अज करो।”

"मुझे भी अमीर मीरजुमला के साथ दकन भेज दीजिये। ताकि अपनी आँखों से मैं वह सब न देख सकूं जिसे देखने का मैं आदी नहीं हूँ।”

"तुम्हारा मकसद क्या है?”

"शहज़ादी, वह काफ़िर हिन्दू राजा, जिसमें हुजूर खास दिलचस्पी ले रही हैं, मैं उसे कल कत्ल करूँगा और दकन चला जाऊँगा और फिर आपको मुँह न दिखाऊँगा।” नजावत खाँ तेजी से उठकर चल दिया।

बाहर आकर उसने देखा-खानजादा साहेब सामने हाजिर हैं। खानजादा ने आगे बढ़कर कहा, "आदाब अर्ज है मनसबदार साहेब, कहिए शहज़ादी से शादी तय हो गयी?”

नजावत खाँ ने घृणा और क्रोध में भरकर कहा, "मरदूद, नामाकूल, तेरा सर धड़ से अलहदा करूंगा।”

"बखुशी, मनसबदार साहेब, मगर शादी का जुलूस देख लेने के बाद।” वह हँसता हुआ एक ओर चला गया और नजावत खाँ ताव-पेच खाता दूसरी ओर।

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