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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

 

टीपू सुलतान

प्रबल प्रतापी हैदरअली मर चुका था और उसका वीर परन्तु अनुभव-शून्य पुत्र टीपू सुलतान अपने पिता के पदचिहों पर चलकर विजय किये जाता था। अन्त में उससे अंग्रेज़ी सरकार ने मैत्री स्थापित कर ली। युद्ध बन्द हो गया और अंग्रेज़ी सरकार से सब जीते हुए इलाके उसने वापस कर दिये। अंग्रेज़ सरकार ने भी उसे मैसूर का अधिपति स्वीकार कर लिया और भविष्य में छेड़छाड़ न करने का वचन दिया।

यह वह युग था जब यूरोप का प्रसिद्ध सप्तवर्षीय युद्ध समाप्त हो चुका था। इस युद्ध में इंग्लैण्ड के हाथ से अमेरिका की संयुक्त रियासतें सदा के लिए निकल गयी थीं और स्वाधीन हो गयी थीं। इंग्लेण्ड की शक्ति को काफी बट्टा लगा था। इसीलिए इंग्लैण्ड के शासकों ने अपने देश का यश फिर से कायम करने के लिए भारत में साम्राज्य की बढ़ाने का निश्चय कर लिया था। भारत में साम्राज्य की वृद्धि करके अमेरिका की कमी कैसे पूरी की जाए यह योजना लेकर लार्ड कार्नवालिस भारत के भाग्यविधाता होकर गवर्नर जनरल का मुकुट धारण कर भारत में आ चुके थे।

भारत में हमेशा यह कमी रही है कि यहाँ वीरों और योद्धाओं ने तो हर युग में जन्म लिया पर सेनापति और राजनीतिज्ञों की कमी ही रही। राज्यों के बड़े-बड़े अधिकारी महावीरश्रेष्ठ होते थे, राजनीतिज्ञ और सेनापति नहीं।

टीपू सुलतान एक ऐसा ही पुरुष था। उसके शरीर-बल का सामना करने वाला कोई पुरुष उस युग में पृथ्वी पर न था, परन्तु वह राजनीतिज्ञ और दूरदर्शी न था। उसका सबसे पहला काम पड़ोसी राज्यों से मैत्री स्थापित करना था, जिसके बल पर वह विदेशी जातियों से बच सकता था। परन्तु कुछ सरहदी इलाकों के सम्बन्ध में उसने अपने पड़ोसी मराठों और निजाम दोनों से झगड़े ठान लिये। अगर वह उनसे दबकर भी प्रेम और मैत्री की स्थापना रखता तो अन्त में उसे नष्ट न होना पड़ता।

लार्ड कार्नवालिस ने अपना काम टीपू से ही प्रारम्भ किया। इसके दो कारण थे। टीपू और उसके पिता हैदर ने अंग्रेज़ सरकार को बहुत छकाया था और उन्हें बारम्बार उससे हार खानी पड़ी और अपमानित होना पड़ा। कार्नवालिस टीपू की पड़ोसी राज्यों से विषमता को जान गया था-वह टीपू के अटूट धन-रत्न से भी परिचित था। उसने सबसे पहले निजाम से एक सन्धि की, जिसका मतलब यह था कि निजाम की सबसीडियरी सेना, जो निजाम के खर्चे पर रखी गयी थी, टीपू पर आक्रमण करने के लिए काम में लायी जा सकती है। उसके सिवा निजाम ने उस आक्रमण में और भी मदद अंग्रेज़ों को देना स्वीकार किया था।

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