अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
अनात्मदान
बारहवीं सदी की बात है। उस समय उत्तर भारत में दो बड़े प्रसिद्ध राजा थे। एक दिल्लीपति पृथ्वीराज और दूसरे कन्नोजाधिपति महाराज जयचन्द। पृथ्वीराज छोटे-से राजा थे, पर महावीर थे। कन्नोजाधिपति बड़े भारी राजा थे। उन दिनों बात-बात में राजा आपस में लड़ा करते थे। लड़कर कट मरना वे अपनी शान समझते थे। उन दिनों वीरता का ही बोलबाला था।
बुन्देलों के परमार राजा महाराजा जयचन्द के मण्डलीक राजा थे। उनके योद्धा आल्हा-ऊदल बड़े बाँके वीर थे। वे महोबा के रहने वाले थे। उनकी वीरता की बड़ी धाक थी। एक बार वे दिल्ली आकर जबर्दस्ती, पृथ्वीराज की बहन बेला को ब्याह ले गये थे-तभी से पृथ्वीराज उनपर खार खाते थे।
दिल्लीपति पृथ्वीराज की बहन बेला को महोबे के सामन्त आल्हा ने अपने भतीजे के लिए माँगने का साहस किया। चौहान की कन्या और तुच्छ शत्रु सामन्त? प्रस्ताव तिरस्कृत कर दिया गया। परन्तु आल्हा नियत काल में बारात लेकर आ धमके। प्रत्येक बाराती लोहे के बख्तर से सजा था। प्रत्येक की रान के नीचे बिजली की तरह तड़पता हुआ घोड़ा था। प्रत्येक की दृष्टि में प्रलय की आग थी। 18 वर्ष का दूल्हा ब्रह्मानन्द दूल्हे को सजाने योग्य चमकीले वस्त्रों के स्थान पर सिर से पैर तक शस्त्रों से सज्जित था। उसके दाहिनी ओर अखण्ड योद्धा आल्हा, बायीं ओर प्रचण्ड-अजेय शक्तिपुञ्ज ऊदल और आगे मृत्युञ्जय मलखान थे। दिल्ली के फाटक पर छावनी पड़ गयी। रूपा नाई को बुलाकर कहा गया, "जाओ, समधी से बारात की अगवानी करने की कह आओ।”
रूपा नाई उस बारात का उपयुक्त नाई था। बारात के सामन्तों में कोई ही योद्धा उसकी बराबरी का होगा। रूपा उड़ा, मय घोड़े के दरबार में घुस गया। पृथ्वीराज को उसकी यह धृष्टता सहन नहीं हुई। सन्देश सुनकर तो वे जल उठे। संकेत के साथ योद्धागण दोनों हाथों में तलवार लेकर नेग भुगताने लगे। चारों ओर मुण्ड ही मुण्ड थे। एक महासामन्त का सिर काटकर रूपा यह कहकर तीर की तरह लौटा कि नेग चुकाकर इस सिर को दक्षिणा में ले जा रहा हूँ। अब फेरों के लिए तैयार रहना।
बारात बलपूर्वक नगर में घुस पड़ी। पग-पग पर लोहा था, मगर लोहे से लोहा भिड़ रहा था। वीरों की अजेय बारात काई की तरह योद्धाओं को चीरती हुई महलों में जा घुसी। 52 महासामन्त नंगी तलवारें ऊँची करके मण्डप बनाकर खड़े हो गये। कन्या हर ली गयी-पुरोहित मन्त्र पढ़ने लगे। विवाह हो गया। रक्त-फाग तो चारों तरफ चल ही रहा था। वधू का डोला लेकर बारात चल खड़ी हुई। नगर के फाटक पर ब्रह्मानन्द की छाती में तीर लगा और वह मर गया। बारात स्तब्ध थी।
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