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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

बस, फिर क्या था-नाचते हुए मोर की भाँति चारों ओर से चौहानों को घेर लिया गया। गहरी मार छिड़ी। जवान बढ़-बढ़कर हाथ मारते थे। सिर भुट्टे की तरह कट-कटकर गिरते थे। जिस हाथी पर गुर्ज का हाथ बैठता-पहाड़ी झरने की भाँति खून की धारा बह निकलती। मारा-मारी होते-होते दोनों सेनाएँ गुंथ गयीं। पृथ्वीराज अपने भारी धनुष से आठ-आठ टंक के बाण फेंक रहे थे। वे हाथी के बदन के आर-पार जाकर दूसरे को हनन करते थे। दोनों ओर की सेनाएँ ‘हर-हर, जय-जय' कर चीत्कार कर रही थीं। रणवाद्यों से कान बहरे हो रहे थे। बिना सूड के हाथी दौड़ते-चिंघाड़ते भयानक प्रतीत होते थे, कटार के पार होते ही वीरों की आँतें और कलेजे निकल आते थे। कभी बिछुआ, कभी कटार, बांक, बगूदा, बरगुदा आदि गिरकर जब खड़खड़ाहट पैदा करते थे तो कायरों का कलेजा काँप जाता था। खोपड़ी पर गुर्ज के गिरने का भयानक शब्द आतंक पैदा करता था। गुर्ज पड़ते ही खोपड़ी खिल जाती और भेजा निकल पड़ता था। कटे हुए सिर धरती पर फड़क रहे थे। कोई हुँकारता, कोई ललकारता, कोई हाहाकार करता, कोई पानी-पानी पुकारता था। पर कोई वीर हटता न था। वीर हवा में तलवार घुमाते इधर से उधर फिर रहे थे।

खूब लोहा बजा। अन्त में महोबे वालों ने चौहानों की सेना के धुरें बिखेर दिये। महाराज पृथ्वीराज घायल और बेहोश होकर धरती पर गिर पड़े। उनकी रक्षा करने में वीर सामन्त संयमराय जी ने शरीर पर 80 घाव खाये।

दोनों वीर लाशों के ढेर पर पास-पास पड़े थे। उठने की शक्ति न थी। लड़ाई समाप्त हो चुकी थी। सूर्य की तेज़ धूप चमचमा रही थी। घायलों के सड़ने की दुर्गन्ध के मारे नाक नहीं दी जाती थी। गिद्ध और चील मुदों की आँतें ले-लेकर उड़ रहे थे। दूसरी चीलें झपट्टा मारकर उन्हें छीनने का यत्न कर रही थीं।

एक भयानक गिद्ध महाराज पृथ्वीराज के माथे पर आ बैठा और उनकी आँखें निकालने की चेष्टा करने लगा। इसी समय संयमराय को होश आ गया। उन्होंने देखा कि स्वामी की आँखें यह भयानक पक्षी निकाल रहा है, तो उनका चित्त छटपटा उठा। वे हिल-डुल नहीं सकते थे, जाँघ की हड़ी टूट चुकी थी। उन्होंने बड़े कष्ट से अपनी कटार निकाली और उससे अपना माँस काट-काटकर गिद्ध की ओर फेंकना शुरू किया। गिद्ध उसे खाने लगा। बड़ी देर तक ऐसा ही होता रहा। इतने में महाराज को होश आ गया, यह देख संयमराय के होंठों में मुस्कान आयी और उसी-के साथ उनके वीर प्राण निकल गये।

तभी से उनके विषय में यह दोहा प्रसिद्ध हुआ-

गीधन को पल भख दिये नृप के नैन बचाय।

सैं देही बैकुण्ठ में, गये जु सयसराय।।

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