अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
दरबार की एक रात
जोधपुर में मुगल ही मुगल दिखाई पड़ते थे। नगरनिवासी घर छोड़-छोड़कर भाग गये थे और मुगलों ने घरों पर अधिकार कर लिया था। प्रात:काल ही से नगर में चहल-पहल थी। बड़े-बड़े सरदार घोड़ों पर चढ़े इधर-उधर दौड़-धूप कर रहे थे। नये-नये अमीर-उमराव बाहर से आये हुए थे। बाज़ारों में भीड़ लग रही थी।
यह वह समय था, जब मारवाड़ में मुसलमानों का अधिकार हो गया था। दिल्ली तख्त पर प्रतापी औरंगजेब का शासन था। यहाँ नया सूबेदार बदलकर आया था। उसका दरबार होने वाला था। इसमें सभी राजवर्गी पुरुषों को बुलाया गया था, परन्तु हिन्दू सरदारों को हथियार लेकर आना निषिद्ध था।
सड़कों और गलियों में स्त्रियों तथा पुरुष जहाँ-तहाँ भीड़ की भीड़ खड़े कानाफूसी कर और आते-जाते योद्धाओं को देख रहे थे।
मुगल पलटन की एक टुकड़ी कायदे से कवायद करती हुई किले की ओर चली गयी। किला एक ऊँची दुर्गम पहाड़ी पर स्थित मज़बूत पत्थरों का बना था और उसका फाटक अभेद्य था।
दरबार का भवन मुगलों से खचाखच भरा था परन्तु राठोर सरदार अभी नहीं आये थे। उनकी प्रतीक्षा में दरबार की कार्यवाही अभी स्थगित थी। एक सैनिक अफसर ने आकर कहा, "सरदार लोग बड़ी देर कर रहे हैं।”
उसने पहाड़ी की तलहटी तक फैली हुई टेढ़ी-तिरछी सड़क की ओर देखा। सुनहली धूप में उसे उनके चमकते हुए चन्चल घोड़े दिखाई दिये। वे सब धीरे-धीरे बातें करते बढ़े चले आ रहे थे। उनमें से किसीके भी शरीर पर हथियार न थे।
उसने उन्हें देखकर कहा, "ली, वे आ रहे हैं।”
उनमें कुछ उठते हुए युवक थे जिनकी अभी रेखें भीजी थीं। कुछ वृद्ध पुरुष थे, जिनकी विशाल दाढ़ियाँ हवा में फहरा रही थीं। वे बातें करते और सशंक दृष्टि से मुगलों से भरे किले को देखते हुए बढ़ रहे थे। घोड़े सुनहरी साज से सजे हुए थे और उनकी पोशाकें रंग-बिरंगी थीं।
नगर-निवासी तलहटी में सड़क के दोनों ओर खड़े उगली उठा-उठा-कर प्रत्येक के सम्बन्ध में अपने-अपने मनीगत भाव प्रकट कर रहे थे। एक ने कहा, "देखो, यह राव करनसिंह बघेला जा रहे, जिन्होंने रानी माँ की पीठ पर रहकर उनकी रक्षा की थी, जब वे दिल्ली के घेरे का भेदन करके चली थीं।”
दूसरे ने कहा, "यह ठाकुर बख्तावरसिंह पंचोली हैं जिनकी तलवार पाँच हाथ की होती है। आज वे निहत्थे दुश्मनों के दरबार में जा रहे हैं।”
तीसरे ने चिल्लाकर अपनी ओर सबको आकर्षित करके कहा, "और उधर देखी उस सफेद घोड़े पर कानीद के राव राजा प्रतापसिंह हैं, जिन्होंने उस दिन खाली हाथों नाहर को चीर डाला था। वाह, क्या बाँका जवान है! अभी तो रेखें ही भीजी हैं।”
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