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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

वन के अगम्य स्थल पर मुकुन्ददास ने घोड़ों को रुकवा दिया और राजपूतों को चुपचाप बैठ जाने की आज्ञा दी। फिर वह बूढ़ी औरत को एक तरफ ले गये और कहा- "माँ, तुमने मेरे प्राण बचाये हैं, अब एक उपकार और करो। अभी तुम चुपचाप घर में बैठना। संध्या होने से पहले ही तुम नगर में यह देखना कि कौन मुगल कहाँ ठहरा है। उन मकानों पर चिह्न कर देना और संध्या होते ही मुझे इसकी सूचना देना।”

वह स्त्री चली गयी, और मुकुन्ददास गम्भीर चिन्ता में डूब गये।

संध्या बीतकर रात्रि हो चली। मुकुन्ददास विचलित भाव से उस वृद्धा की प्रतीक्षा कर रहे थे। वह धीरे से आयी और बैठ गयी। वह एकदम थक गयी थी। मुकुन्ददास ने उसकी गम्भीर मुद्रा देखकर कहा, "माता, तुम वह काम कर आयीं? उनका क्या हाल है?”

"वे वहाँ आन्न्द मना रहे हैं, दावतें उड़ा रहे हैं और नाच-रंग हो रहे हैं। अभागे नगर-निवासियों से बलपूर्वक बेगारें ली जा रही हैं। भले घर की बहू-बेटियाँ सुरक्षित नहीं। वे चाहे जिसके घर में घुसकर उनकी लाज लूट रहे हैं। ठाकरां, आज की रात कालरात्रि है।”

वह कुछ ठहर गयी। उसकी आँखों से आँसू ढुलक पड़े। उन्हें दोनों हाथों से पोंछकर उसने कहा-"वे जिन-जिन घरों में ठहरे हैं मैंने उनपर चिह कर दिया है। गलियों में सन्नाटा छा रहा है। जो लोग नगर में बचे हैं वे सब लोग चुपचाप द्वार बन्द किये हुए हैं। शेष घर छोड़कर भाग गये हैं।”

मुकुन्ददास की आँखों से आग निकल रही थी। उन्होंने कहा, "माँ, तुमने बहुत काम किया, अब तुम थोड़ा विश्राम कर ली। आधी रात बीतने पर मेरा काम प्रारम्भ होगा।”

आधी रात होने पर मुकुन्ददास ने अपने सब साथियों को चुपचाप तैयार होने का आदेश दिया। वे स्वयं भी घोड़े पर सवार हो गये और सब धीरे-धीरे उस ऊबड़-खाबड़ पर्वत-पथ को पार करते हुए नगर की ओर चले। वह स्त्री भी उनके साथ थी। नगर में प्रवेश करते ही वह रुकी, उसने कहा, "ठाकरा, कुछ और चीज़ तो नहीं चाहिए? यह मेरा घर है।”

"हाँ, माँ, हमें कुछ मज़बूत रस्सियाँ और सूखा फूस चाहिए।”

"फूस तो छप्पर से लेना होगा, रस्सियाँ मैं लाती हूँ। तुम सिपाहियों से कहो, वे छप्पर पर चढ़ जाएँ और उसे उधेड़ लें। कुछ चिन्ता नहीं, मैं गरीब ती हूँ, पर फिर बनवा लूँगी।”

वह बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये घर के भीतर घुस गयी।

मुकुन्ददास ने सिपाहियों को घोड़ों से उतरने का आदेश दिया। वे स्वयं भी घोड़े से उतर पड़े। कुछ ही क्षणों में सबने अपने सिर के साफे खोल डाले और फूस के गट्ठे बाँध लिये। एक-एक रस्सी भी सबके हाथों में थी। उन्होंने जूते भी उतार दिये और निश्शंक नगर में घुस गये। वृद्धा को उन्होंने छुट्टी दी।

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