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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

रात अन्धेरी थी। जिन घरों पर चिह्न थे उनके द्वारों को उन्होंने खूब कसकर रस्सी से बाँध दिया और उनपर सांकलें चढ़ा दीं ताकि कोई भी बाहर न निकल सके। इसके बाद थोड़ा-थोड़ा-सा फूस द्वार पर रख दिया। देखते-देखते समस्त चिहित द्वार रस्सियों से बाँध और फूस से ढांप दिये गये। फिर मुकुन्ददास ने संकेत किया और एकबारगी ही समस्त फूस में आग लगा दी गयी। तदनन्तर सब राजपूत अपने-अपने घोड़ों पर सवार होकर अलग खड़े हो गये। सबने तलवारें सूत ली। मुकुन्ददास ने गम्भीर स्वर में कहा, ‘वीरो, इन पतित हत्यारों में से एक भी न बचने पावे। जो बाहर निकले, उसीके दो टुकड़े कर दी। सावधान रहो।"

देखते ही देखते आग की लपटें प्रचण्ड हो गयीं। गली-कूचे धुएँ से भर गये। प्रथम धीमा और फिर प्रचण्ड चीत्कार उठ खड़ा हुआ। कुछ ही क्षण में सारा नगर धांय-धांय जलने लगा। फूस की आग से लकड़ी के पुराने विशाल दरवाज़े और दीवारें चर-चर करती जल उठीं। प्रति क्षण आग प्रचण्ड होती जाती थी और सब ओर दूर-दूर तक प्रकाश फैल रहा था, जिसमें राठौर वीरों की भयानक-काली मूर्तियाँ नंगी तलवार लिये चुपचाप खड़ी दिखलाई देती थीं।

मकानों से भयानक, करुण चीत्कार आ रहे थे। मनुष्य झुलस रहे थे और डकरा रहे थे। आग की लपटें आकाश को छू रही थीं, सिपाहियों के हृदय फटे पड़ते थे, परन्तु मुकुन्ददास हाथ में नंगी तलवार लिये चुपचाप पत्थर की मूर्ति की तरह अचल खड़े थे।

रात बीत गयी। सूर्य की सुनहरी किरणें उस भस्मीभूत नगर पर पड़कर एक और ही समाँ दिखा रही थीं। एक भी मुगल जीता न बचा था। मुकुन्ददास और उनके वे सिपाही वहाँ से चले गये थे और वह वृद्धा आँखें फाड़-फाड़कर उन जले कंकालों को देख रही थी, जिन्होंने कल ही अत्याचार और कत्ल के बाज़ार गर्म किये थे।

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