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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

 

आचार्य चाणक्य

अब से कोई दो हज़ार वर्ष से भी अधिक पुरानी बात हम कर रहे हैं। उस समय पाटलिपुत्र में शूद्र राजा महाधननन्द सिंहासन पर विराजमान था। यह महानृपति एकराट्, एकच्छत्र था। इसके पिता महापद्मनन्द ने अपने काल के सब क्षत्रिय राजाओं का संहार करके, पुत्रत् के लिए एकच्छत्र राज्य निष्कण्टक किया था।

धननन्द का प्रताप प्रचण्ड था। उसके पास दो हज़ार युद्ध रथ, बीस हज़ार अश्वारोही, चार हज़ार रणोन्मत्त हाथी तथा दो लाख पदाति थे। महाविचक्षण, कूटराजनीति-विशारद वररुचि कात्यायन और सुबुद्धि शर्मा उपनाम राक्षस-उसके मंत्री थे। महापद्मनन्द से पहले, उस काल में उत्तर भारत में सोलह महाजनपद थे। इनमें से पौरव, ऐक्ष्वाकु, पांचाल, हैहय, कलिंग, अश्मक, कौरव, मिथिला, शूरसेन और वीतिहोत्र महाजनपदों की महापद्मनन्द ने ध्वस्त किया था। इस प्रकार उसका महाराज्य, रावी नदी के पूर्वी तट को छू गया था। उन दिनों वाराणसी, पाटलिपुत्र और तक्षशिला में प्रसिद्ध विश्वविद्यालय थे, जिनमें तक्षशिला विश्वविश्रुत था। यहाँ 108 छत्रधारी राजाओं के उत्तराधिकारी राजपुत्र पढ़ते थे, तथा दिग्दिन्त के महामेधावी छात्र आते रहते थे।

चैत्र के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी थी। पाटलिपुत्र में उस दिन बड़ी धूमधाम थी। राज-प्रासाद में महोत्सव हो रहा था और सब नगर-नागर राजाज्ञा से आनन्द मना रहे थे। ठौर-ठीर दुन्दुभी-भेरी बज रहे थे। लोग दीन-दुखियों को अन्न-वस्त्र बाँट रहे थे। हाट-बाज़ार, घर, बाहर सभी जगह लोग आनन्दोत्सव में मग्न थे। पुर-वधुएँ मंगलगान और मंगलोपचार कर रही थीं। नगर-नागरों ने अपने-अपने

घर के द्वार पर मंगल-कलश, तोरण आदि सजाये थे। वे मंगलसूचक शंखध्वनि कर रहे थे। राज-प्रासाद में बड़ा उल्लास था। जिधर देखिए उधर नृत्य-गान-पान-गोष्ठी हो रही थी। आज सभी के लिए राज-प्रासाद का प्रांगण खुला था। सब कोई वहाँ जा-आ सकते थे-याचकों की यथेच्छ वर मिल रहा था। ठीर-ठोर बन्दीगण और कुशलवी प्रशस्ति-गान कर रहे थे। ब्राह्मण स्वस्त्ययन पाठ कर रहे थे। यज्ञहवन-दान-पूजन-बलि-स्तवन-जहाँ देखिए वहीं कुछ न कुछ हो रहा था। मृदंग-मन्जीर-तूणीर के निनाद से दिशाएँ पूरित हो रही थीं। आज परम आनन्द का दिन था। महाराज धननन्द की नयी रानी ने एकमात्र महाराज्य के एकमात्र उत्तराधिकारी पुत्र को जन्म दिया था। महाराज की आज्ञा से राज्य-भर के बौद्ध विहारों, चैत्यों तथा देव-स्थानों में शिशु सम्राट् के दीर्घ जीवन की प्रार्थना हो रही थी। राज-प्रासाद में एक वृहत् राज-सभा के बीच नवजात शिशु को भारत का भावी सम्राट् उद्घोषित और अभिषिक्त किया गया था। इस समय महाराज धननन्द का प्रबल प्रताप तप रहा था। नवजात शिशु सम्राट् की अभ्यर्थना के लिए सब आये थे। उनके लाये स्वर्णरत्न, मुद्रा, कौशेय-पाटम्बर, हाथी-घोड़ा-रथ-यान-पालकियों की राज-प्रासाद में इतनी रेलपेल हो रही थी कि उपानय वस्तुओं को यथास्थान रखने और मनुष्यों को खड़े होने का स्थान ही नहीं मिल रहा था।

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