अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
उपानय भेंट अर्पण करने की राजा लोग पंक्तिबद्ध चले आ रहे थे। उनके साथ दास-दासी उपानय सामग्री लिये बोझ से दबे दिन-भर खड़े रहकर थक गये थे, पर अभी उनकी बारी ही नहीं आयी थी। दण्डधर-द्वारपाल-कचुकी उन्हें दम-दिलासा दे रहे थे-ठहरो, अभी ठहरो! आपका उपानय भी स्वीकार होगा। और जिसका उपानय राज-प्रासाद में पहुँच जाता था, वह कृतकृत्य ही प्रासाद के रास-रंग में आनन्द-मग्न हो जाता था।
दासियाँ, गणिकाएँ सब आगन्तुकों को गन्ध-माल्य-पान से सत्कृत कर रही थीं। अतिथि उन सुन्दरियों के सानिध्य में उनके दिये हुए चन्दन का अंगों पर लेप किये हँस-हँसकर माध्वी-मैरेय-गौड़ीये आसव पान कर उल्लास में सराबोर हास्य-विनोद-आलिंगन का आनन्द ले रहे थे। सुवासित मदिराओं की वहाँ जैसे नदी बह रही थी। भाँति-भाँति के मॉस-मिष्ठान्न-पकवान पक रहे थे और अतिथि तृप्त होकर खा-पी रहे थे। राज-पार्षद नगर में घूम-फिरकर बछड़े, मेढ़े, भैंसे, हरिण आदि पशु और आखेटक तीतर, बटेर, लावक, हरित, हंस, चक्रवाक आदि पक्षी मार-मारकर रसोई में पहुँचा रहे थे। आहार-द्रव्यों का पहाड़-सा लगा था, जो खत्म होता ही न था, और भी आता जाता था।
धीरे-धीरे संध्या ही चली। नगर असंख्य दीप-मालिकाओं से जगमगा उठा। राज-पथ पर अब भी हाथी, रथ, शकट, शिविकाओं की भरमार थी। परन्तु राज-महालय के पृष्ठ भाग की संकरी गली में अन्धेरा था। वहाँ एक स्त्री शरीर को आवेष्टन से लपेटे जल्दी-जल्दी महालय के गुप्त द्वार की ओर जा रही थी। इसी समय महालय के गुप्त द्वार की ओर से एक पुरुष निकला। पुरुष तरुण था, उसकी कमर में खड्ग बँधा था तथा बहुमूल्य कौशेय-परिधान पर वह असाधारण महार्ध रत्नाभरण धारण किये हुए था। मद्य के मद में उसके नेत्र लाल हो रहे थे-वाणी स्खलित हो रही थी और उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। उसके साथ एक सेवक था जो उसका धनुष और तूणीर लेकर पीछे-पीछे चल रहा था।
स्त्री को आते देख उसने स्खलित वाणी से कहा, “ठहर जा, ऐ ठहर जा!"
इसके बाद उसने चर से कहा, "चरण, देख तो, यह कोई सामान्या प्रतीत होती है। सुन्दरी भी है, या यों ही टेसू है?”
चर ने आगे बढ़कर स्त्री का आवरण खींचकर उतार दिया। स्वर्ण की भाँति उसकी अंगदीप्ति से गली का अन्धकार उज्ज्वल हो उठा।
"अहा, सुन्दरी है महाराज!”
"युवती भी है या ढड्डी है?”
"नवीन वय है, यौवन का उभार खूब है!”
"तो देख, अच्छी तरह देख!”
चर ने निश्शक अंग-प्रत्यंग टटोलने आरम्भ कर दिये, सूघकर श्वासगंध ली। स्त्री लाज से सिकुड़ गयी और भय से थर-थर काँपने लगी।
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