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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

भयानक सर्दी थी। सब तरफ बर्फ ही बर्फ नज़र आती थी। मास्को से 100 मील दूर एक गाँव के किनारे, सशस्त्र सैनिकों से घिरा हुआ एक दल आया। चांदनी रात थी, और उस मीलों लम्बे-चौड़े मैदान में सफेद बर्फ चमक रही थी। लम्बे और ऊँचे-ऊँचे वृक्ष काले-काले बड़े सुहावने प्रतीत होते थे। कुल सैनिकों की संख्या 200 थी और जो सेना उन्हें घेरे हुए थी, यह अनुमानत: 1000 की होगी। सेना का अधिपति एक पुराना जनरल था। वह बूढ़ा आदमी था। वह अपना रोबीला चेहरा लिये, अकड़ा हुआ घोड़े पर सवार था। उसने चमड़े के दस्ताने पहने हुए घोड़े की रास खींची और सेना को पंक्तिवद्ध होकर खड़े होने की आज्ञा दी। प्रत्येक सैनिक पत्थर की मूर्ति के समान अचल था। उनकी बन्दूकों के कुन्दे चाँदनी में चमचमा रहे थे।

सेनानायक ने सैनिकों को व्यूहबद्ध करने के बाद कैदियों को एक दोहरी पंक्ति में खड़े होने की आज्ञा दी। कैदी भी सैनिक थे और वे सैनिक वर्दियाँ पहने हुए थे। सेनानायक ने कड़ककर आज्ञा दी, "तुम लोगों की ‘बोल्शेविक' होने के अपराध में अभी गोली मार दी जाएगी!”

प्रत्येक व्यक्ति निश्चल था। सेनापति की आज्ञा थी, किसीने विरोध नहीं किया। सेनापति की दूसरी आज्ञा थी, "अपने-अपने पैरों के पास अपनी-अपनी कबें खोद लो!”

कैदियों ने कन्धों से कुदालियाँ उतारकर गढ़डे खोदने शुरू कर दिये। सैनिक चुपचाप यह सब दृश्य देख रहे थे। उस भयानक सर्दी में इतना कठिन परिश्रम करने से कैदियों के माथे से पसीना बह चला। जब कुल कबें खुद चुकीं तो सेनापति ने हुक्म दिया, ‘हर कोई अपनी-अपनी वर्दी उतारकर रख दे, क्योंकि वे सरकारी सिपाहियों के काम आवेंगी। गोली लगने से वर्दियों में छेद होकर उनके खराब हो जाने का डर है।”

कैदियों ने चुपचाप अपनी वर्दियाँ उतारकर रख दीं। उनके सफेद शरीर शीशे की माफिक चमकने लगे। वे काँप रहे थे, किन्तु भय से नहीं, शीत से। सेनापति ने क्षण-भर उनका निरीक्षण किया और हुक्म दिया, "तुममें से जो बोल्शेविक सिपाही न हो, वह इस पंक्ति से हटकर अपने घर चला जा सकता है, उसे मैं स्वतन्त्र करता हूँ।”

कैदियों ने अपने आसपास खड़े मित्रों और बाँधवों को नीरव दृष्टि से देखा। इनमें बहुत-से पिता-पुत्र, चाचा-भतीजे और सगे-सम्बन्धी थे। उसके बाद उन्होंने सामने सोते हुए गाँव की ओर दृष्टि डाली, जहाँ उनकी प्यारी पत्नियाँ और बच्चे सो रहे थे और यह नहीं जानते थे कि उनके पतियों पर क्या बीत रही है। फिर उनकी दृष्टि मीलों तक लहराते हुए खेतों पर दौड़ गयी जिनको उन्होंने जीता और बोया था, और जो अब पककर खड़े थे। उनकी दृष्टि सब तरफ दौड़कर फिर एक-दूसरे को देखने लगी और ज़मीन में झुक गयी। सेनापति ने फिर पुकारा : "क्या तुममें से कोई ऐसा नहीं है जो बोल्शेविक नहीं?”

कैदियों ने एकस्वर होकर जवाब दिया, ‘‘हम सभी लोग बोल्शेविक हैं।”

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