अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
ब्राह्मण की धृष्ट वाणी सुनकर चरण ने कहा, "अरे ब्राह्मण, क्या तू हमारे प्रबल प्रतापी महाराज उग्रसेन को नहीं जानता, जिनके चरण-नख सब जनपद-नरपतियों के मुकुट मणियों की दीप्ति से प्रतिबिम्बित हैं? तू राज-काज में व्याघात करने वाला कौन है? भाग यहाँ से!”
परन्तु ब्राह्मण इस बात से आतंकित नहीं हुआ। उसने कहा, "राह चलती स्त्री पर अत्याचार करना, क्या राज-काज है?”
"तो अत्याचार कौन करता है ब्राह्मण, हमारे रसिक महाराज तो उससे केवल आज रात का श्रृंगार माँगते हैं। वे उन सब सामान्याओं को शुल्क में रत्नमणि देते हैं, जो उन्हें एक रात रति देती हैं।”
"भन्ते ब्राह्मण, मैं सामान्या नहीं हूँ, राज-महालय की दासी हूँ! महाराजाधिराज की अन्तेवासिनी हूँ।”
"तो महाराज उग्रसेन, आप इसपर बलात्कार क्यों करते हैं?”
"भन्ते ब्राह्मण, इन्होंने मुझे लात मारी है, मेरा श्रृंगार खन्डित किया है।”
"अरी तो क्या हुआ? महाराज ने एक लात मार ही दी तो क्या हुआ? महाराज के चरण-स्पर्श से तो तू सत्कृत हो गयी। चल-चल, आज रात हमारे महाराज की अंकशायिनी हो।” चरण ने उसे हाथ पकड़कर घसीटते हुए कहा।
उग्रसेन ने कन्ठ से मुक्ता-माला उतारकर उसके ऊपर फेंकते हुए कहा, "ले अप्सरे, लात का मूल्य, और चल मेरे साथ!” "नहीं, मैं नहीं जाऊँगी!”
"तो चरण, काट ले इसका सिर!”
चरण ने कोष से खड्ग खींच लिया। ब्राह्मण आगे बढ़कर स्त्री और सेवक के बीच में खड़ा हो गया। उसने कहा, "वह सामान्या नहीं है! तुम उसे बलात् नहीं ले जा सकते, उसपर अत्याचार भी नहीं कर सकते!”
उग्रसेन नशे में धुत हो रहा था। उसने लड़खड़ाते कदम उठाकर, आगे बढ़ते हुए कुद्ध स्वर में कहा, "क्यों नहीं ले जा सकते? हम पृथ्वी के स्वामी हैं! पृथ्वी की सब वस्तुओं के स्वामी हैं! क्यों रे चरण?”
"हाँ महाराज, आप पृथ्वी के स्वामी हैं!” चरण ने कहा।
पर ब्राह्मण पत्थर की अचल दीवार की भाँति उसके आगे खड़ा था। उसने कहा, "अरे ब्राह्मण, हट जा! तूने राजाज्ञा नहीं सुनी, मुझे इस स्त्री का सिर काट लेने दे।”
"तू मेरे रहते ऐसा नहीं कर पायेगा, रे अधर्मी शूद्र।”
"अरे हमींकी शूद्र कहता है?”
"और तेरा यह महाराज भी शूद्र है! परन्तु शूद्र यह जन्म ही से है, कर्म से तो चान्डाल है!”
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