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बड़ी बेगम

आचार्य चतुरसेन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9021
आईएसबीएन :9789350643334

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बड़ी बेगम...

यह सुनकर उग्रसेन आपे से बाहर हो गया। उसने कहा, "चरण, पहले इस ब्राह्मण ही का शिरश्च्छेद कर!”

परन्तु ब्राह्मण ने तेजी से लपककर ज़ोर का एक मुक्का चरण की मुष्टि पर मारा। खड्ग चरण के हाथों से छूटकर भूमि पर गिर गया। उसे फुर्ती से उठाकर, ब्राह्मण ने चरण के कन्ठ पर रखकर कहा, "अरे धृष्ट शूद्र, आ, आज तुझे देवता की बलि दूँगा!” चरण ब्राह्मण के चरणों में लोटकर गिड़गिड़ाकर प्राण-भिक्षा माँगने लगा। तब ब्राह्मण ने कहा "अच्छा, तुझे छोड़ता हूँ! इस कुलांगार राजपुत्र की बलि दूंगा!”

वह नग्न खड्ग लेकर उग्रसेन की ओर बढ़ा। उग्रसेन ने भयभीत होकर कहा, "सारा नशा खराब कर दिया।”

इसी समय महामात्य वररुचि कात्यायन, तीन-चार सशस्त्र प्रतिहारों के साथ वहाँ आ निकले। उन्हें देखते ही उग्रसेन ने चिल्लाकर कहा, "आर्य, महामात्य, यह ब्राह्मण मेरा शिरच्छेद करना चाहता है; इसे पकड़कर सूली पर चढ़ा दी!" महामात्य वररुचि कात्यायन महावैयाकरणी और त्रिकालदर्शीं ज्योतिष में पारंगत वृद्ध पुरुष थे। उनका विशाल डीलडौल, बड़े-बड़े नेत्र थे और उज्ज्वल प्रतिभा थी। वे शुभ्र परिधान धारण किये थे। उन्होंने ब्राह्मण के निकट जाकर, उसे पहचानकर कहा, कहा, तुम हो विष्णुगुप्त?"

"मैं ही हूँ, आर्य कात्यायन!”

"विवाद का कारण क्या है?”

"यह इस शूद्र राजकुमार से पूछो!”

"आर्य, मैं निवेदन करती हूँ! मैं राज-दासी हूँ, महाराज के लिए मैंने श्रृंगार किया था। इन्होंने मेरा श्रृंगार खंडित कर दिया और बलात्कार से रति-याचना करते हैं। स्वीकार न करने पर, शिरच्छेद करने को उद्यत हैं।" स्त्री ने वररुचि के चरणों पर गिरकर कहा।

"तो हम भी तो महाराज ही हैं। यह स्त्री आज का श्रृंगार हमें दे, हम शुल्क देंगे।”

"कुमार, तुम्हारा व्यवहार गर्हित है, तुम इस समय सुरा-पान से मत्त हो। जाओ, राज-प्रासाद में जाओ!” कात्यायन ने कहा।

"अरे, हमारा सेवक होकर हमींको आँखें दिखाता है! राज-कोप का भी तुझे भय नहीं है? अमात्य शकटार जैसे सपरिवार अन्धकूप में पड़ा है, वैसे ही तुझे भी अन्धकूप में डाल दूँगा!”

"राजकुमार, मैं तुम्हारे कुल का सेवक अवश्य हूँ! परन्तु मैं महान नन्द साम्राज्य का महामात्य हूँ। प्रजा का न्याय-शासन करना मेरा कर्तव्य है। राजकुल के पुरुष होने के कारण मैं तुम्हारे ऊपर शासन नहीं कर सकता, परन्तु तुम्हारा प्रजा पर, प्रकट राजपथ में इस प्रकार नीति-विरुद्ध कार्य करना अन्यायपूर्ण है। जाओ, प्रासाद में जाओ!”

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