अतिरिक्त >> बड़ी बेगम बड़ी बेगमआचार्य चतुरसेन
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बड़ी बेगम...
"इस सामान्या की में ले जाऊँगा। ओहो, आधा प्रहर रात्रि तो इस झगड़े ही में व्यतीत हो गयी! खेर, साढ़े तीन प्रहर ही सही ! चल मेरे साथ।” उसने फिर उस स्त्री का हाथ पकड़ लिया।
स्त्री ने रोते-रोते कहा, "आर्य महामात्य, आप राज्य के रक्षक हैं। इस आततायी से एक असहाय अबला की रक्षा नहीं कर सकते ?”
वररुचि ने कहा, "कुमार, छोड़ दो उसे!”
"वह कोई कुलस्त्री नहीं है!”
"न सही, स्त्री तो है!”
"तो स्त्रियाँ तो सब ही पुरुषों के लिए भोग्य हैं!"
अब तक ब्राह्मण विष्णुगुप्त खड्ग लिये चुपचाप खड़ा था। अब उसने आगे बढ़कर कह, "तुम्हें धिक्कार है कात्यायन! तुम इस कंलकी कुल के सेवक हो-इसलिए इस राजकुमार के अत्याचार से स्त्री की रक्षा नहीं कर सकते। परन्तु मैं सेवक नहीं हूँ। मेरे रहते यह मद्यप इस स्त्री को छू भी नहीं सकता!”
"अरे ब्राह्मण, हट जा, मेरी जी इच्छा होगी करूंगा!”
कात्यायन अब खड्गहस्त होकर आगे बढ़े। उन्होंने कहा, "तुमने ठीक धिक्कारा, विष्णुगुप्त! ब्राह्मण होकर शूद्र की दासता धिक्कार योग्य ही है! पर प्रजा पर शासन तुम्हारा नहीं, मेरा काम है; आवश्यकता होगी, तो इस राजकुमार का शिरच्छेद मैं ही करूंगा!”
"सब नशा खराब कर दिया। इस अमात्य को सवेरे शकटार के पास, अन्धकूप में कैद करूंगा। चल चरण, लौट चल! ऐसा अच्छा नशा खराब हो गया!” यह कहता हुआ उग्रसेन, लड़खड़ाते पैर रखते हुए, वहाँ से चला गया।
विष्णुगुप्त ने पुकारकर कहा, "अपना यह खड्रग तो लेते जाओ, राजकुमार!” और उसने वह खड्ग हवा में उछाल दिया। फिर स्त्री से कहा, 'चलो, मैं तुम्हें राज-द्वार तक पहुँचा दूँ।”
"नहीं विष्णुगुप्त, कष्ट न करो। मैं इसे अपने साथ महालय ले जाता हूँ चल शुभे, तुझे अन्त:पुर में सुरक्षित पहुँचा दूँ।” यह कहकर, महामात्य कात्यायन उस स्त्री को साथ लेकर राज-महालय की ओर चले गये। विष्णुगुप्त भी एक ओर को चल दिया। भीड़ के लोग उस कुरूप ब्राह्मण के साहस की चर्चा करते हुए तितर-बितर हो गये।
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